म्यूजियम में या कबाड़ी के गोदाम में-डॉ निर्मल जैन (से.नि.जज )
म्यूजियम में या कबाड़ी के गोदाम में
डॉ निर्मल जैन (से.नि.जज )
जो कुछ भी पुराना हो जाता है उसके लिए दो ही स्थान रह जाते हैं । पहला, गुणों और विशेषताओं के कारण अपनी एंटीक-वैल्यू व दुर्लभ होने की स्थिति में म्यूजियम । जिसे देखने दुनिया जाती है, सराहती है । दूसरा, गुणहीन और उपयोगिता रहित वस्तुएं किसी कबाड़खाने में ही पड़ी हुई मिलती हैं । हमारी जिंदगी भी धीरे-धीरे पुरानी होती जा रही है । जीवन के अंतिम सोपान में हमारा क्या दृष्टिकोण है ? हम अपने आपको म्यूजियम में सजाना चाहते हैं या किसी कबाड़ी के गोदाम में उपेक्षित पड़े रहने लायक । बुढ़ापे को अगर सम्मानीय एवं अनुकरणीय बनाना है, म्यूजियम में सजना है तो सावधानी पूर्वक बहुत पहले से ही तैयारी करनी है । बुढ़ापा शब्द सुन कर दूसरों पर बोझ सरीखा लाठी के सहारे हाँफता, काँपता, लाचार, उपेक्षा का पात्र चेहरा उभरता है । अगर समय रहते सजग और सतर्क रहे हैं तो इस सायंकालीन धुंधलके में ‘पेट और पीठ’ मिलकर एक हो जाने पर भी निज-पर दोनों के लिए जीवन वरदान बन सकता है । पुरुषार्थ की प्रखरता, आत्मबल के तेज से भरपूर देहयष्टि और हर पल आनंद लेती हुई उल्लसित मुखाकृति । जीवन वरदान बने इसके लिए कुछ अधिक नहीं करना । केवल विकार, विचार, विवेक, और विराग इन चारों को लेकर सावधानी बरतनी है ।
संपूर्ण प्रकृति परिवर्तनशील है । परिवर्तन के इस क्रम में ही चीजें बदलती, बनती, मिटती हैं। सुबह को सूरज उगता है, आसमान में चढ़ता है और बाद में ढल जाता है। प्रकृति जैसा ही क्रम हमारे जीवन का भी है । सूर्योदय की भांति जन्म होता है, चढ़ते सूर्य की तरह जीवन की दोपहर, जवानी में प्रवेश होता है। फिर शाम का धुंधलका लिए बुढ़ापा आते ही जीवन भी ढल जाता है। उमर को तो हम ढलने से रोक नहीं सकते । कृत्रिम साधन और प्रसाधनों के इस्तेमाल से “अप टू डेट” दिखने के भरसक प्रयासों के बावजूद भी उम्र के प्रभाव से हम बच नहीं सकते। क्योंकि आने वाला कल सबको “आउट ऑफ डेट” कर देता है । बढ़ती उम्र के सुख-दुख के कितने मौसम झेलने के बाद शरीर पत्ते की तरह पक कर शिथिल होने के साथ क्षीण होता जाता है। पकने के बाद टपकना ही है और कोई रास्ता है ही नहीं । इस सच को जानते हुए भी परिवार के मुखिया होने का अहंकार, धन की, खाने-पीने की, भोग-विलास की तृष्णा और अधिक पंख पसार कर विस्तार ले लेकर जो अब तक सँजोया संवारा है उसे बाहर-भीतर दोनों से बिखेरने लगती है । बस में कुछ कुछ भी नहीं, लेकिन मन में सब कुछ बसाए रखते हैं । इसी भ्रम में ज्यादा बोलना, फालतू की चिंता पालना और अधीरता बुढ़ापे के बचे-खुचे मजे को भी किरकिरा कर देते हैं।
नई पुस्तक के पन्ने बहुत आसानी से पलट लिए जाते हैं । पर जीर्ण-शीर्ण दुर्लभ पाण्डुलिपि को पढ़ते समय पन्ने सावधानी से पलटते, सहेजते हैं । इसी तरह अपने ज्ञान, अनुभव का खजाना समेटे पुरानी होती जिंदगी के प्रति भी हमें उतनी ही सावधानी बरतनी है । विकारों से दूर हँसी-खुशी सोचना है कि संसार के लिए जितना जीना था जी लिया, अब अपने लिए जीना है । मूल जिंदगी चली गई, ब्याज बची है । ब्याज को व्यर्थ नहीं गंवाना है । परमुखापेक्षी नहीं बनना । परावलंबी बनेंगे तो हताशा हाथ आएगी, अधिक अपेक्षाएं रखेंगे तो उनकी पूर्ति नहीं होने पर मन अंदर से टूटेगा, कचोटेगा । स्वावलंबी बने रहकर सुविधा, संपत्ति, वैभव भी उतना रखना जितने में जिंदगी चल जाए, किसी से कुछ मांगना न पड़े । नई पीढ़ी का सोच और जीने का ढंग हम से बिलकुल अलग है । इसलिए सलाह भी मांगने पर ही देना । आखरी तक मालिक बने रहने की कोशिश से रोज-रोज महाभारत मचेगा । अपने आप को, घर में रहते हुए भी न रहने जैसी स्थिति में ले आयें । अपने को स्वामी नहीं मेहमान बन के रखना है, तभी सम्मान मिलेगा । जितना छोड़ेंगे उससे अधिक पाएंगे, जितना पकड़ेंगे उतना छिनता जाएगा। ऐसी भावनाओं के साथ बुढ़ापा भी जीवन के अवसान को नव-अभियान बना देता है । म्यूजियम में एंटीक बन कर संसार के कौतूहल का प्रसंग बन कर सजता-सँवरता है। —-
जज (से.नि.) डॉ. निर्मल जैन