आचार्य श्री 108 ज्ञानभूषण जी मुनिराज का गुरुग्राम में संसघ चातुर्मास सुनिश्चित होने से मेवात क्षेत्र के सर्व समाज में हर्ष की लहर
गुरूग्राम- गुरु द्रोण की धार्मिक नगरी गुरुग्राम की पावन पवित्र धरा में जैन दिगंबर आचार्य श्री 108 ज्ञान भूषण महाराज रत्नाकर का संसघ चातुर्मास सुनिश्चित होने से क्षेत्र मेवात क्षेत्र में भी हर्ष का वातावरण व्याप्त हो गया है। 21 जुलाई से 01 नवंबर (कार्तिक माह की अमावस्या) तक आचार्य श्री का चातुर्मास गुरुग्राम में संपन्न होगा। गुरु द्रोण की नगरी में एक बार फिर जीवदया की धर्म प्रभावना के साथ प्राणी मात्र का आत्मकल्याण व आध्यात्मिक धार्मिक प्रभावना की गंगा बहेगी। जिससे प्राणी मात्र अपना आत्म व धार्मिक कल्याण कर सकेगा।सर्वजातीय सेवा समिति के उपाध्यक्ष रजत जैन ने बताया कि आचार्य श्री का 32 वां चातुर्मास होगा। गुरुग्राम मेवात के समीप होने की वजह से फिरोजपुर झिरका ,नगीना,नूँह,साकरस,पुन्हाना,पिनगवां के अलावा आसपास के क्षेत्र के गांव व नगरो में जैन समाज के साथ सर्व समाज में भी हर्ष का वातावरण है। मुनिराज के दर्शनों के लिए बेसब्री से इंतजार कर रही है। जिससे की क्षेत्र में एक बार फिर आपसी प्रेम सौहार्द के साथ जीव दया व धार्मिक प्रभावना में वृद्धि हो सके।आचार्य ज्ञान भूषण महाराज श्री के प्रवचनों से धर्म की ज्ञान गंगा बहेगी,उससे अमृत निकलेगा, धर्म रूपी ज्ञान अमृत हमारा जीवन चरित्र निर्माण में सहायक होगा।रजत जैन ने बताया की उत्तम जीवन चरित्र निर्माण के लिए साधु संतों का समागम व उनका सानिध्य आवश्यक होता है। आचार्य श्री ज्ञान भूषण जी महाराज के प्रवास के दौरान उनके द्वारा उत्तम आचरण व विचार प्राप्त होंगे। उनके द्वारा दिखाए गए अहिंसा के सद्मार्ग पर चलकर हम अपना जीवन सफल कर सकगे।जैन मुनिराज का तप,संयम, साधना त्याग व तपस्या की महिमा अमूल्य है। इन की दिनचर्या बड़ी कठिन है।हर मौसम में दिगम्बर मुनिराज नग्न (बिना वस्त्रों) रहते हैं तथा नंगे पैर चलते हैं। चौबीस घंटों में मात्र एक बार ही आहार जल लेते हैं। कई बार तो उनकी क्रिया विधि ना मिलने के कारण कई कई दिन तक वे बिना आहर जल के ही रहना पड़ता है। प्रत्येक व्यक्ति को जैन मुनिराज का आदर सत्कार, मान सम्मान करना चाहिए।रजतजैन ने बताया की मुनिराज व महाराज श्री जैन परंपरा के अनुसार वर्षा ऋतु काल के चारमाह की समय अवधि के दौरान विहार नहीं करते है। अपने आवागमन के लिए स्वेच्छा से एक निश्चित दूरी की रेखा निर्धारित कर लेते हैं। जीव मात्र की रक्षा हेतु व अपने आत्म कल्याण के लिए एक नगर/ ग्राम में निवास करते हैं। क्योंकि वर्षा ऋतु की अवधि में जीव जंतुओं की उत्पत्ति अधिक होती है।