आध्यात्मिक व धार्मिक साधना के साथ समाज को एक सूत्र में पिरोने का सुयोग -चातुर्मास
आध्यात्मिक व धार्मिक साधना के साथ
समाज को एक सूत्र में पिरोने का सुयोग -चातुर्मास
डॉ निर्मल जैन (से.नि.न्यायाधीश)
पावस काल उपलब्धियों का समय माना गया है। देश की सुख-समृद्धि खाद्य पदार्थों पर निर्भर होती है और खाद्य पदार्थ अन्न, जल, शाक-सब्जी, फल-फूल, दूध-घी, वनस्पतियां सबकी प्रचुरता समय पर अनुकूल वर्षा से ही सम्भव है अत: वर्षा ऋतु को प्रेयस का आधार कहा गया है । यह वर्षा ऋतु जीव-जन्तु, तृण-तरु और मानवीय ऊर्जा को वृद्धिंगत करती है । विद्वान, संत, मनीषी वर्षायोग में प्राचीन शास्त्रों के अनुवाद एवं आगम-पुराणों के आधार पर वर्तमान परिप्रेक्ष्य में जो साहित्य सृजन कर रहे हैं उनमें सर्वाधिक कार्य इन्हीं दिनों होता है । यह काल भागमभाग का नहीं है अपितु पर्वों के स्वर्ण काल का है अत: श्रमण और श्रावक इन दिनों व्रत-उपवास, संयम नियम की पुण्य-पूँजी को जी भरकर संग्रहित कर लेते हैं।
इस समय आत्म-कल्याण और ध्यान करने से जीवन में नई ऊर्जा का संचार होता है। चातुर्मास में बरसात के कारण साधुओं का आवागमन स्थगित रहने से उन सब का एक स्थान पर सानिध्य एवं श्रद्धालुओं को सद्मार्ग दिखाने का अवसर मिलता है । एक पहलू यह भी है कि वर्षा ऋतु में ऊर्जा का क्षय कम हो जाता है, जठराग्नि मंद हो जाने के कारण पाचन शक्ति प्रभावित होती है । अतः इस काल में धर्म साधना, तपश्चर्या एवं उपवास तुलनात्मक रूप से अन्य काल की अपेक्षा अधिक श्रद्धा से संभव है । चातुर्मास की केवल चार महीनों की अवधि ही नहीं होती, बल्कि यह अपने से परिचित होने, मनुष्य से मानव बनने का सार्वकालिक अभूतपूर्व अवसर है ।
अनेक प्रशंसनीय आयोजन इस दौरान होते हैं, लेकिन यह भी साथ में ध्यान रखना होगा कि कहीं धर्म प्रभावना का निमित्त यह चातुर्मास मात्र प्रदर्शन की भेंट न चढ़ जाये। प्रभावना के चक्कर में साधना कहीं खो न जाए। संख्यात्मक वृद्धि करने वाला न साबित हो। नये जोश और जज्बे के साथ एक ऐसी उपलब्धि लेकर यह चातुर्मास जाये कि समाज के लिये सदियों तक यादगार बना रहे और साधु की साधना को ऐसा शांत अवसर मिले कि वह अपने रत्नत्रय का पालन करते हुए अपने मोक्ष मार्ग को राह शीघ्र पूरी करें ।
मुनि श्री विनम्र सागर के चातुर्मास के लिए 50 से अधिक फौजियों को सुरक्षा घेरे में लगाया, उन्हें किस डर है ? संतों को VIP बनाने की कोशिश क्यों । -मनीष अजमेरा
वास्तविक रूप से चातुर्मास संयमपूर्वक जीवन निर्वाह करने का संदेश है । इस काल में किसी भी प्रकार से क्रोध न करके मर्यादा और संयम का पालन करने का अभ्यास करते हैं। व्यर्थ वार्तालाप, अनर्गल बातें, गुस्सा, ईर्ष्या, अभिमान जैसे भावनात्मक विकारों से अपने को बचाए रखने की आदत डालनी है, बाह्य प्रदर्शन के लिए धन का अपव्यय न किया जाये ।
समाज में आर्थिक रूप से कमजोर भाईयों की संख्या काफी अधिक है। क्यों न चातुर्मास में अपने जरूरतमंद भाइयों की मदद के लिए कुछ किया जाए । बच्चों को अच्छी शिक्षा दिलाने के लिए हम साधन उपलब्ध करा सके। धर्म प्रभावना के साथ चातुर्मास की यही बहुत बड़ी उपलब्धि होगी । समाज के नैतिक विकास को गतिमान करने के साथ बढ़ रहे अवांछित प्रसंगों के प्रति समाज को जागरूक किया जाए । व्यसन मुक्त बनाने का व दिनोंदिन पारिवारिक जीवन में अपने ही लोगों से बढ़ रहीं दूरी के प्रति लोगों को प्रेरित कर आपस में हिल-मिलकर रहने की ऊर्जा प्रस्फुटित की जाए । होना तो यही चाहिए लेकिन अनेक जगह दिखता कुछ हट कर है । आयोजकों में झगड़े और समाज में विघटन जैसी घटनाएं भी सुनने को मिलती हैं।
धर्म आत्म दर्शन के लिए है प्रदर्शन के लिए नहीं । वर्षा योग में न निमंत्रण पत्रिका, न होर्डिंग, न बोर्डिंग, न बड़ा मंच-बड़ा पंडाल, हाथी, घोड़ा सभी का निषेध स्वर्ण कलश और आडम्बरों से मुक्त चातुर्मास । मुनि श्री कनक नंदी जी
पूर्ण सफल एवं सार्थक तभी माना जा सकेगा जब श्रमण का समय चार प्रकार की आराधना- (सम्यग आराधना, ज्ञान आराधना, चारित्र आराधना, तप आराधना) में व्यतीत हो एवं श्रावक का चार प्रकार की (कषाय क्रोध, मान, माया, लोभ) शुद्धियों से समन्वित हो । जाति, पंथ एवं संत के नाम पर विभक्त समाज को प्रेम, वात्सल्य के माध्यम से अखण्डता की ज्योति आलोकित हो । संत, विद्वान और समाज श्रेष्ठियों को ही नहीं हम सभी को इस विषय पर गंभीर चिंतन ही नहीं अपितु क्रियान्वयन की तुरंत आवश्यकता है ।
चातुर्मास का प्राचीन नाम है ‘वर्षायोग’ अर्थात आत्म साधना हेतु स्वस्थ सुयोग । वनस्पति-कायिक जीवों का विधात न हो, अहिंसा धर्म की रक्षा हो, नियमित संयमित होकर सब रहें निरोग । भारतीय इतिहास में सर्वोपरि स्थान प्राप्त जैन श्रमण, संत समुदाय हमारे राष्ट्र की सर्वश्रेष्ठ पूँजी हैं, सर्वश्रेष्ठ धरोहर हैं । चातुर्मास की किसी गतिविधि से इनकी अस्मिता धूमिल न होने पाये । इसलिए यह अनिवार्यता बन जाती है कि धन, प्रचार, प्रसार और लोकेष्णा की आधुनिकता के प्रवाह में बह कर चातुर्मास ‘चतुरमास’ न बन जाए । यह चार माह का पवित्र पर्व चातुर्मास व्यक्ति, परिवार और समाज को एक सूत्र में पिरोने का भागीरथ प्रयास भी है।—जज (से.नि.) डॉ. निर्मल जैन