*पुज्यपाद स्वाध्याय तपस्वी वैज्ञानिक धर्माचार्य श्री कनकनंदी जी गुरुराज द्वारा समस्त श्रावको को हितोपदेश -*
जो संतवाद,मतवाद,गुरु परंपरावाद से रहित होकर किसी भी वीतरागी श्रमण की सेवा वैयावृत्ति करता है वह जीव समस्त अरिहंत,सिद्ध सहित पंच परमेष्ठि व तीन कम नौ करोड़ महामुनियों की आराधना व संपोषण करता है। इसके विपरित कोई श्रावक या समाज किसी एक वीतरागी श्रमण का भी अनादर,तिरस्कार या सेवा के प्रति कर्तव्य विमुखता करता है तो वह समस्त पंच परमेष्ठि,तीन कम नौ करोड़ महामुनि सहित पूरे जिन शासन की विराधना व खंडित करने का घोर पाप का बंध करता है।
गुरुदेव ने इसको उदाहरण के माध्यम से बताया कि जैसे हम पानी,खाना सिर्फ मुॅंह से खाते हैं आक्सीजन सिर्फ नाक से लेते हैं किंतु वह सम्पूर्ण शरीर के अंग अंग को विकसित करता है।
नाक से ग्रहण की गई शुद्ध आक्सीजन,मुॅंह से ग्रहण किया गया शुद्ध पानी व शुद्ध भोजन शरीर के प्रत्येक भाग को मजबूत करता है। एक पौधे की मात्र जड़ में पानी डालने से वह लाखों टन मजबूत वृक्ष बनता है। जिसकी क्विंटल वजनी सैकड़ों शाखाऐं विकसित होती है।
ठीक वैसे ही एक श्रमण की सेवा वैयावृति भी सीधे समस्त पंच परमेष्ठि की आराधना का पुण्य देती है।
वहीं इसके विपरित सिर्फ नाक या मुॅंह से ग्रहण की गई अशुद्ध गैस,भोजन व पानी पूरे के पूरे शरीर को दुर्बल व रुग्ण कर देता है।
अपने ही इस बड़े शरीर के मात्र एक अंग के किसी एक छोटे से भाग पर कोई पतली से सुई चुभा देता है तो पूरे शरीर में कंपन्न व पीड़ा होती है उसी तरह मात्र एक वीतरागी श्रमण का अनादर,तिरस्कार,सेवा के प्रति अकर्मठता,रोड़े डा़लना अर्थात समूचे जैन धर्म,जिनशासन व पंच परमेष्ठि का खंड खंड करने का क्रूर से क्रूर पाप है।
कुछ लोग मंदिर व मूर्तियों की बहुत बड़ी बड़ी पूजा करते हैं,उसके लिए कमेटी में बड़े पद पर आसीन हो जाते हैं किंतु निर्ग्रंथ साधु के आने पर सेवा कर्तव्य से पीछे हट जाते हैं ऐसे लोग मात्र और मात्र शव पूजक है।
देव -शास्त्र -गुरु यह तीनों धर्म आराधना व मोक्षमार्ग के महत्वपूर्ण हिस्से हैं, तीनों की सेवा वैयावृत्ती प्रमुख कर्तव्य है।
जिसमें साधु तो जीवंत तीर्थ है जिनको शास्त्र भेंट करने वाला लकड़हारा अगले भव में आचार्य देव कुंदकुंद बन जाता है ,साधु के आहरदान की अनुमोदना करने वाला पक्षी अगले भव में उच्च देव तो वहीं साधु के स्वाध्याय को शांतचित्त से श्रवण व अनुमोदना करने वाला तिर्यंच अगले भव में बाली महामुनि बनता है जो रावण के अभिमान को चूर-चूर कर देते हैं।
पूज्य आचार्य श्री कनकनंदी जी गुरुदेव अभी 15 दिनों से गुणभूषण श्रावकाचार ग्रंथ से सेवा वैयावृत्ति विषय पर स्वाध्याय करा रहे हैं। आचार्य श्री एक एक शब्द पर कई महीनों तक स्वाध्व्याय व्याख्यान करने के दक्ष हैं।
*ऐसे श्रेष्ठ ज्ञानदान को देने वाले वैज्ञानिक धर्माचार्य श्री कनकनंदी जी गुरुराज के पावन चरणों के अविनाशी नमन*
*🖊️शब्द सुमन -शाह मधोक जैन चितरी🖊️*
*श्री राष्ट्रीय जैन मित्र मंच भारत*