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Home›लेख-विचार›भीतर से खोखले ही होते हैं-डॉ.निर्मल जैन (से.नि.न्यायाधीश)

भीतर से खोखले ही होते हैं-डॉ.निर्मल जैन (से.नि.न्यायाधीश)

By पी.एम. जैन
August 5, 2024
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ज्ञान और आचरण का समन्वय बहुत आवश्यक है, क्योंकि बिना आचरण के ज्ञान व्यर्थ है । इसके विपरीत प्राप्त ज्ञान को यदि आचरण में नहीं उतारा और आगे बढ़ गये तो पीछे की उपलब्धियां क्षीण होती जाएंगी और क्षीण होते-होते शून्य भी हो जाएंगी । ज्ञान दो प्रकार का है -शाब्दिक ज्ञान और अनुभवात्मक ज्ञान । शाब्दिक ज्ञान हम किताबें पढ कर एकत्र कर सकते हैं । जब यह किताबी ज्ञान अनुभव में परिवर्तित हो जाता है, आचरण में आता है तब अनुभवात्मक ज्ञान कहलाता है । केवल शाब्दिक ज्ञान अहंकार बढाता है, इससे दूसरों पर रुआब भी डाल सकते हैं । इसके द्वारा जो हम हैं ही नहीं वह दिखाने लगते हैं, एक्टिंग भी अच्छी करने लगते हैं, पर शुद्ध ज्ञान बिन उपदेशक भीतर से खोखले ही होते हैं । कोरे पांडित्य का क्या लाभ ? जिस ज्ञान से चित्त की शुद्धि होती है, वही यथार्थ ज्ञान है । शेष सब अज्ञान है । किसी को बहुत सारे शास्त्र, अनेक श्लोक मुखाग्र हो सकते हैं, पर वह सब केवल रटने और दोहराने से क्या लाभ ? अपने जीवन में शास्त्रों में निहित सत्यों की प्रत्यक्ष उपलब्धि होनी चाहिए । -महावीर

जब तक ज्ञान-दान के पीछे धन या प्रशस्ति पाने की आसक्ति है, कंचन का लालच है  तब तक चाहे जितने भी शास्त्र पढ़ोगे तो सूचनाओं का अंबार तो लग जाएगा लेकिन ज्ञान लाभ नहीं होगा । जिस तरह मृदंग या तबले के बोल मुंह से निकालना आसान है, किंतु प्रत्यक्ष बजाना कठिन है उसी तरह धर्म की बातें कहना तो सरल है, किन्तु आचरण में लाना कठिन ।

 वेद की ऋचाएं, पौराणिक आख्यान, शास्त्रीय ग्रंथों का संदेश है  कि –‘जो मेरे लिए अनुकूल नहीं है वैसा आचरण दूसरों के साथ नहीं करना चाहिए’ । यह भाव भी पारिवारिक संस्कारों और आसपास के परिवेश पर निर्भर है । प्राय: घरों में माता-पिता दैनिक जीवन में झूठ का सहारा अपने हित-साधन के लिए लेते हैं । घर के छोटे लोग न चाहते हुए उसी तौर-तरीकों को अपनाने लगते हैं । अपने लाभ के लिए बोले गए एक असत्य-वचन से कई दिनों की पूजा-उपासना, यज्ञ-अनुष्ठान उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं जैसे बड़े परिश्रम से घड़े में एकत्र किए गए जल में कोई एक छेद कर दे, तो पूरा जल बह जाता है । कोई भी धर्म असत्य के मार्ग पर चलने की अनुमति नहीं देता है।

सम्पूर्ण जैन विचारधारा कर्म सिद्धान्त पर आधारित है । अर्थात जैसा कर्म वैसा फल । हम देवालयों में जाते हैं । वहां सदाचार, सुसंस्कारों का उपदेश सुनते हैं, पढ़ते हैं । बाहर निकलते ही हम भूल जाते हैं कि क्या सुना, क्या पढ़ा? अपने पूर्व स्वरूप में लौट आते हैं, ‘मन में कुछ है, लेकिन ऊपर से चिकनी-चुपड़ी बातें कर पहले निकटता, फिर लालच के बाद अवसर पाकर लोगों को ठगने में लग जाते हैं’। लेकिन यह ठगी, नकारात्मकता और तीन-तिकड़म की आयु लंबी नहीं होती । उसे एक न एक दिन परास्त होकर पीड़ा भोगनी होती है। जब ऐसा फल मिलता है तो जीवन को कोसते नजर आते हैं, भगवान को दोष देते देखे जाते हैं, वक्त को गाली देते हैं । जबकि वास्तविकता यह है की हम सुखी हैं, सम्मानित हैं तो यह हमारी सकारात्मक जीवन-शैली है और अगर धोखा, कृतघ्नता, झूठ-फरेब का रास्ता अपनाएंगे तो अपमानित होकर दुखी होना ही होगा । यही कर्म फल नियम है । अन्य किसी में यह ताकत नहीं है कि वह हमें दुख या सुख दे । सुख है तो वह भी और दुख है तो वह भी हमारे द्वारा ही अर्जित किया हुआ है ।

हमें बाह्यरूप से श्रेष्ठ, आचरण ही बनाता है । लेकिन ज्ञान के बिना आचरण एक नकाब / दिखावा भी हो सकता है । ऐसे प्रदर्शन का गुण छद्म वेशधारी व्यक्तियों में ही देखने को मिलता है । क्योंकि उनके पास शब्दों की जादूगरी ही होती है, ज्ञान नहीं। आचरण वह है जो लोगों को हमें या हमारे व्यक्तित्व को समझने का मौका देता है जबकि ज्ञान हमें, लोगों को समझने का मौका देता है । ज्ञान की क्रियात्मक पहल है आचरण अर्थात् ज्ञान तभी सही माना जायेगा जब वह आचरण में आता है, दिखाई पड़ता है । अन्यथा वह केवल अहंकार बढाने अथवा श्रोताओं से छल का माध्यम मात्र है।जज (से.नि.) डॉ. निर्मल जैन

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