भौतिकवादी संसार में शांत, सुखी जीवन का मार्ग*दशलक्षणपर्व* -डॉ निर्मल जैन (से.नि.) न्यायाधीश नई दिल्ली
विज्ञान के सुविधाजनक आविष्कारों और भौतिकवाद ने लोभ और मिथ्याकर्षणों से हमारे जीवन को पूरी तरह सम्मोहित कर दिया है । चारों तरफ अनैतिकता का कड़वा विष व्याप्त है। ईमानदार और सदाचारी होना हास्यास्पद प्रतीत होने लगा है। जो विशुद्ध, निष्काम, निर्लिप्त जीवन जीना चाहते हैं उनके लिए कहीं कोई गुंजाइश नहीं है। पुराने मूल्यों पर भयावह संकट है । नए मूल्य अपने में ही मूल्यहीन । हिंसा, झूठ, भ्रष्टाचार का बोलबाला । ऐसी स्थिति में आशा की कोई किरण है तो वह है -धर्म । जब संसार के सारे द्वार किसी के लिए बंद हो जाते हैं तब एक दरवाजा फिर भी खुला रहता है और वह दरवाजा होता है -धर्म का । धर्म के बारे में हमारे धार्मिक पर्व हमें जागरूक बनाते हैं, आत्मबल जगाते हैं और डामाडोल होते मन में विश्वास का उज्ज्वल प्रकाश भर देते है। मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति के साथ हमारे आध्यात्मिक उत्थान का वास्तविक कोई साधन है तो धर्म ही है । भौतिक सुविधाएं तो आनुषंगिक अंग हैं, इसलिए धर्म की सार्थकता का मापदण्ड भौतिक उत्थान कभी नहीं हो सकता ।दशलक्षण पर्व का मूल आशय ही शांतिपूर्ण जीवन यापन के साथ मन के सारे विकारों को नष्ट कर आत्मिक उत्थान करना है । यह पर्व ‘अहिंसा परमो धर्मः’ के सिद्धांत को प्रतिपादित करने वाले ‘जियो और जीने दो‘ का संदेश देता है । पर्वकाल में हम अपने मन के नकारात्मक विचारों का नाश करने का संकल्प लेते हैं । ताकि मन के तमाम विकारों एवं दुष्प्रभावों पर नियंत्रण रखना सीख जायें तो जीवन में शांति एवं पवित्रता आ जाये । दशलक्षण पर्व के दिनों में क्रमशः उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन तथा उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म की आराधना की जाती है । ये सभी आत्मा के धर्म हैं, क्योंकि इनका सीधा सम्बंध आत्मा के कोमल परिणामों से हैं । इस पर्व का एक वैशिष्ट्य ही है कि इसका सम्बंध किसी व्यक्ति विशेष से न होकर आत्मा के गुणों से है । पर्व मनाने का मूल ध्येय है भौतिकवादी दुनिया में हम किस तरह से अपनी इच्छाओं को सीमित करें, कुंठाओं से निपटें और चिंताओं का शमन कर सुखी, शांत रूप से जीवन बिता सकें । प्रथम धर्म क्षमा, चाहे कैसी भी विषम परिस्थिति आए अपने मन को स्थिर रख क्रोध न करना क्षमा धर्म है । क्रोध के शमन होते ही अहंकार स्वयं ही दम तोड़ देता है । क्रोध और अहं विहीन मन में मार्दव धर्म की निश्छल धारा प्रवाहित होने लगती है और हम अपने निज-स्वभाव यथा विनय, विनम्रता, प्रेम एवं कोमलता से परिपूर्ण हो जाते हैं । इतनी सकारात्मकता की बहुलता से छल-कपट और मायावी प्रवृत्ति के निष्प्राण हो जाने पर सरलता, शालीनता और निष्कपटता, निर्मलता का सागर हिलोरे मारने लगता है । हृदय जब इन आत्मिक गुणों से निकटता प्राप्त कर लेता है तो लोभ के स्थान पर शौच धर्म का निवास हो जाता है । इंद्रियां अपने गुणों में लीन होकर स्वयं ही संयमित हो जाती हैं । इनकी ऊर्जा से तप कर आंतरिक आकुलता शांत हो जाती है, इच्छाओं का निरोध कर कामनाएँ, आकांक्षाएं, वासनायें सब निर्मूल होते ही सांसारिक पदार्थों से मोह भंग जाता है । परिणाम होता है कि त्याग की प्रवृत्ति जागृत होकर आकिंचन भाव को जन्म देती है । इन सबके बाद आत्मा निजचर्या में रमण करते हुए ब्रह्मचर्य धारण करके निज सच्चिदानन्द स्वरूप में अपने परम लक्ष्य को पा लेती है ।
पहले चार धर्म क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, क्रमश हमारे अंदर के क्रोध, मान, माया एवं लोभ को शमन करते हैं । सत्य धर्म आत्मबल में वृद्धि एवं संयम धर्म अनुशासित बने रहने के लिए अनिवार्य है । तप धर्म से इंद्रिय एवं मन पर नियंत्रण रहता है । त्याग धर्म जीवन में संवेदनशीलता सहिष्णुता एवं उदारता में वृद्धि करने में सहायक होता है । आकिंचन, अपरिग्रह धर्म सांसारिक परिग्रह के साथ पदार्थ में आसक्ति के कारण उत्पन्न होने वाले आंतरिक परिग्रह मन-कषाय आदि विकारों को शमन करता है । ब्रह्मचर्य धर्म आत्मनिर्भरता पूर्वक पांचो इंद्रियों के विषयों से विरत आत्म-विश्वास आत्म-बल और गृहस्थाचार को नियमित करने का धर्म है । यह दश धर्म चारित्र सुधार की निर्मल पर्याय हैं । पर्वाधिराज दशलक्षण पर्व में इन दश धर्म की भावना भाते हुए उनको आत्मसात कर हम अपनी निर्मलता को प्राप्त होते हैं ।जज (से.नि.) डॉ. निर्मल जैन