वर्तमान की सभी विकृतियों का समाधान,केवल महावीर*डा निर्मल जैन*जज*

मन में कामना की कल्पनाएँ मधुमक्खियों की तरह इधर-उधर भिनभिनाती रहती हैं । मन थोड़ी खुदाई पर पानी न मिलने पर हर दस कदम पर कुआँ खोदनाचाहता है । महावीर का लोकोपकारी संदेश है कि दस गड्ढों की बिखरी मेहनत को एक ही स्थान पर प्रयोग किया जाता तो सौ पाने के चक्कर में निन्यानवे को भी नहीं खोते ? असंयम, अधिक संग्रह की लालसा और संग्रह की सुरक्षा वर्तमान की सभी समस्या का मूल है। हिंसा उसी का परिणाम है। असत्य, चोरी उसकी परिक्रमा कर रहे हैं। कलह और युद्ध हिंसा के शिखर हैं । आजकल व्यक्ति में, परिवार में, राष्ट्रों में अधिक और अधिक स्वामित्व पाने की ही लड़ाई है । विश्व में शांति स्थापित करनी है तो महावीर की तरह हम भी मन को मांजने के चक्कर में ना पड़ कर मन से, और तन से शून्य बनें, अतीत हो जाएं । ताकि जीवन की यथार्थता नजर आ जाए । काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार जैसे विकारों पर लगाम कसें। आवश्यकताओं की पूर्ति से अधिक अर्जन और संग्रह दोनों ही अनर्थ को निमंत्रण देकर हम पूरी उम्र कमाते हैं फिर भी पूरा नहीं पड़ता। इसीलिए महावीर ने स्वयं अल्पेक्षा, अल्पारंभ, अल्प-परिग्रह को आचरण द्वारा स्थापित किया और अनुकरणीय हुए, पूजनीय हुए। त्याग से जो प्राप्त होगा वह स्थिर रहेगा। यदि चाह सब कुछ पाने की है तो सब कुछ त्यागना भी पड़ेगा। महावीर जानते थे कि हिंसा और हथियारों का प्रयोग तो वे करते हैं जिन्हें भौतिक युद्ध लड़ कर किसी को पराजित करना हो। महावीर का वैचारिक युद्ध तो हिंसक-विकृतियों, गरीबी, वर्ण-भेद, छुआछूत, अज्ञान के अंधेरे और भोग के नशे जैसे अवगुणों में डूबे समाजको अज्ञानियों से छुटकारा दिलाने के लिए था। महावीर विरोधों में समानता का अमृततत्व लेकर आए थे। विरोध आए और समन्वय के चरणों में झुक गए । महावीर ने अपना सब कुछ त्याग दिया और जनमानस से कहा, ‘अपना भय त्याग कर अपने स्वरूप को पहचानो। भय किससे/ सबकीआत्मा समान हैं।’सब अपने-अपने परंपरागतवैशिष्ट्य को रखते हुए भी सभी वर्ग, जाति, धर्म एवं विचार-धाराएं एक-दूसरे के समीप आएं और उनमें एक व्यापक मानवीय-दृष्टि का विकास हो।
डा. निर्मल जैन*जज*