अनूठे अंकबद्ध सिरि भूवलय सिद्धान्त ग्रन्थ में प्राकृत गाथासूत्र (प्राकृत णिव्वाण भत्ती) भाग-2
अनूठे अंकबद्ध सिरि भूवलय सिद्धान्त ग्रन्थ में प्राकृत गाथासूत्र (प्राकृत णिव्वाण भत्ती)
भाग-2
-डाॅ.महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’, इन्दौेर, 9826091247
सिरिभूवलय आश्चर्यान्वित करदेने वाला अद्भुत ग्रन्थ है। आठवीें-नवमी शताब्दी में दिगम्बराचार्य कुमुदेन्दु द्वारा लिखा गया यह अपने आप में अनूठा ग्रन्थ मात्र अंकचक्रों में निबद्ध है। इसमें 1 से 64 तक के अंकों को लिया गया है। एक अंकचक्र में 27 काॅलम खड़े और 27 काॅलम पड़े, इस तरह से कुल 729 खाने बनाये गये हैं, उनमें विशेषविधि से अंक लिखे गये हैं। इस तरह के 1270 अंकचक्र उपलब्ध हैं जिनमें 59 अध्यायात्मक मंगल प्राभृत गर्भित है। ये अध्याय वण्र्यमान सभी विषयों का सूत्ररूप में संकेत करते हैं। 1270 अंकचक्रों से ही विशेष विधि से लगभग 16000 अंकचक्र बनेंगे और करीब आठ लाख श्लोक बनेंगे, जिनसे सभी विषय, भाषाएँ, धर्म, कला, विज्ञान व्यवस्थित रूप से पूर्ण विवेचित होंगे।
यह ग्रन्थ आज के विज्ञान के लिये भी चुनौती है। इसमें 18 महाभाषाएँ और 700 लघु भाषाएँ गर्भित हैं। एक तरह के ही अंकचक्रों को अलग अलग तरह से पढ़ने पर विभिन्न भाषाएँ निसृत होतीं हैैं। जिस तरह भगवान् महावीर की देशना सर्वभाषामयी होती है- ‘‘दश अष्ट महाभाषा समेत, लघुभाषा सातशतक सुचेत।’’ ठीक इसी तरह इस ग्रन्थ में भी सभी भाषाएँ, सभी विषय, 363 मत, 64 कलाएँ और विज्ञान विवेचित है।
बैंगलौर के पं.यल्लप्पा शास्त्री ने आ.देशभूषण जी के सान्निध्य में सिरिभूवलय का प्रारंभिक कार्य किया था। 1957 में उनके देहान्त हो जाने के बाद फिर इसका कार्य आगे नहीं बढ़ सका। तभी से इसे पढ़ने की विशेष विधि ज्ञात करने के अनेक प्रयत्न हुए हैं; किन्तु विफल रहे हैं। हमने इस पर अप्रैल 2001 से विधिवत् कार्य प्रारम्भ करके पढ़ने की विशिष्ट रीति ज्ञात कर बंध खोलने में सफलता प्राप्त कर ली है। जब हमने यह कार्य प्रारंभ किया था उस समय हमारे पास कुछ अंकचक्रों के अतिरिक्त कोई सामग्री उपलब्ध नहीं थी, अब तो पर्याप्त सामग्री आ चुकी है। इस अनूठे कार्य को करने में मेरी गति हो गई है यह देखकर कुछ नामी-गिरामी विद्वानों ने बहुत कठिनाइयां उत्पन्न की, अभी भी ऐेसे लोग लोकेषणा में लगे हैं। वह कथा हम कई भागों में अवश्य प्रकाशित करेंगे कि नामची विद्वान ऐसे-ऐसे कुकृत्य भी कर सकते हैं। अभी तो इसमें जो प्राकृत के गाथासूत्र निकल रहे हैं उन्हें क्रम से देखें। पं. यल्लप्पा शास्त्री जी के हाथ के किये कार्य के दो पृष्ठ भी प्रस्तुत हैं।