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Home›धर्म-कर्म›पर वस्तुओं से अत्यन्त लगाव छोड़ना आकिंचन्य धर्म है-डा.महेन्द्र कुमार”मनुज”

पर वस्तुओं से अत्यन्त लगाव छोड़ना आकिंचन्य धर्म है-डा.महेन्द्र कुमार”मनुज”

By पी.एम. जैन
August 30, 2020
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आकिंचन्य यानि ममत्व का परित्याग करना है। मैं और मेरा का त्याग करना ही आकिंचन्य धर्म हैपरिग्रह का परित्याग कर परिणामों को आत्मकेंद्रित करना ही आकिंचन धर्म माना गया हैआकिंचन्य का अर्थ होता है कि मेरा कुछ भी नहीं है। अपने उपकरणों एवं शरीर से भी निर्ममत्व होना ही उत्तम आकिंचन्य धर्म है । बाह्य तथा अन्तरंग परिग्रह का पूर्ण त्याग होने पर आत्मा का अकिंचन होना आकिंचन्य धर्म है। आकिंचन्य का अर्थ अकेला होना है। किंचित मात्र भी मेरा नहीं ऐसी धारणा बन जाने पर यथार्थ त्याग और आकिंचन्य धर्म होता है।

परिग्रह से ममता होने के कारण ही व्यक्ति समस्त प्रकार की अनीति करता है। परिग्रह की इच्छा से हिंसा करता है, झूठ बोलता है, चोरी करता है, कुशील भी सेवन करता है। परिग्रह के लिये मर जाता है, अन्य को मार देता है, महा क्रोध करता है। परिग्रह के प्रभाव से महान अभिमान करता है। परिग्रह के लिये अनेक मायाचार करता है। परिग्रह की ममता से महालोभ करता है। बहुत आरम्भ तथा बहुत कषाय का मूल परिग्रह ही है। जो सभी पापों में छूटना चाहता है, वह परिग्रह से विरक्त होता है। समस्त पापों का मूल कारण परिग्रह है, समस्त खोटे ध्यान परिग्रह से ही होते हैं । बाह्य परिग्रह।

समस्त पापों का मूल कारण परिग्रह है, समस्त खोटे ध्यान परिग्रह से ही होते हैं । बाह्य परिग्रह तो अन्न-वस्त्र मात्र तथा रहने को कुटी मात्र नहीं होने पर भी यदि पर वस्तु में ममता (वांछा) सहित है तो वह परिग्रही ही है।

परिग्रह ग्रहस्थ और त्यागियों दोनों को छोड़ने को कहा गया है। परिग्रह भी दो प्रकार का हैबाह्य परिग्रह और अंतरंग परिग्रह । बाह्य परिग्रह दस प्रकार हा है-खेत मकान । धन- हाथी घोड़े, गाय आदि । धान्य- अनाज आदि । दासी। दास । वस्त्र। और वर्तन आदि इस सब का परिमाण अर्थात् इतना रखूगा इससे अधिक नहीं रखूगा यह नियम लेकर रखना, ये ग्रहस्थ के लिए अणुव्रत के रूप में कहा गया है।

अब त्यागी-साधु के तो उपरोक्त सभी पहले से ही छूटे हुए हैं, उनके तो तन पर कपड़े तक नहीं हैं तो उनके लिए अन्तरंग परिग्रह कहे गये हैं। वे 14 प्रकार के हैंमिथ्यात्व १, वेद २, राग ३, द्वेष ४, क्रोध ५, मान ६, माया ७, लोभ ८, हास्य ९, रति १०, अरति ११, शोक १२, भय १३ और जुगुप्सा १४ । मिथ्यात्व तो अनादिकाल से देहादि परद्रव्यों में ममत्वबुद्धि, एकत्वबुद्धिरूप परिणाम है। यह देह है वही मैं हूँ, जाति मैं हूँ, कुल मैं हूँ इत्यादि पर पुद्गलों में आत्मबुद्धि अनादि से ही लग रही है, वही बुद्धि मिथ्याबुद्धि है। रागद्वेषभाव, क्रोधादि भाव, मोहकर्म द्वारा किये गये भाव हैं। उन भावों में आत्मपने का संकल्प वही मिथ्यात्व परिग्रह है। काम से उत्पन्न विकार में लीन हो जाना, राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ और हास्य आदि छह नोकषायों में आत्मपने का भाव रखना वह अंतरंग परिग्रह है। जिसके अंतरंग परिग्रह का अभाव हुआ है। उसके बाह्य परिग्रह में ममता नहीं होती है।

त्यागी में यदि थोड़ी सी भी परिग्रह के प्रति आसक्ति आ जाती है तो विकराल रूप ले लेती हैएक उदाहरण आता है। एक नागा साधु बाहर कुटिया में साधु रहते थे। भक्तों को उनके नग्न रहने पर सर्मिन्दगी महसूस होती थी सो उन्होंने बहुत अनुनय विनय करके दो लंगोट लाकर दे दिये एक पहना दी दूसरी धोकर सुखा दीदूसरे दिन देखा सूखने टंगी लंगोटी को चूहों ने काट दिया, चूहा भगाने के लिए भक्त ने बिल्ली पाल दी, बिल्ली को दूध पिलाने कि लिए गाय खरीद दी, गाय को भूसा आदि के लिए खेती करनी पड़ी, खेती के लिए बैल और हल लाये बाबाजी खेती करते हल चलाते एक बार सूखा पड़ गया, खेतों में कुछ नहीं हुआ, लगान नहीं भर पाने के कारण उन्हें जेल जाना पड़ा। उन्होंने कहा में नागा ही भला था। केवल एक लंगोटी की चाह के कारण इतने बड़े जंजाल में फंस गया।

यह मेरा है ये ममत्व बुद्धि ही मूर्छा का कारण हैहृदयाघात के दो ही कारण होते हैं- राग या द्वेष, हर्ष या विषाद बहुत ज्यादा खुसी मिलती है तो व्यक्ति वह सहन नहीं कर पाता और उसको हृदयाघात हो जाता है। बहुत पहले एक घटना घटी थी। एक बैंक का कैशियर जिसके हाथों से प्रतिदिन करोड़ों रूपये निकलते थे, उसे खबर मिली उसकी पाँच लाख की लाटरी खुल गईअभी उसे केवल सूचना मिली थी, वह इतना खुश हो गया कि उसे हृदयाघात हो गया और उसका देहान्त हो गया। क्योंकि उन रुपयों में उसकी ममत्वबुद्धि आ गई थी। बैंक के पैसो से उसे कोई ममत्व नहीं था। बहुत अधिक विषाद दुख का प्रकरण सामने आ जाने पर भी हृदयाघात होता हैअचानक किसी अत्यन्त प्रिय का देहान्त हो जाना, व्यवसाय में बहुत ज्यादा घाटा आ जाना आदि के कारण हृदयाघात हो जाता है। यह सब ममत्वबुद्धि मूर्छा के ही दुष्परिणाम हैं।

महात्मा बुद्ध के शिष्य आनंद ने परिग्रह परिमाण व्रत लिया अर्थात् उसने अपनी सभी तरह की संपत्ति का एक नियम लिया कि ये ये वस्तुएं इतनी से अधिक नहीं रखूगा। गौशाला में उसके नियम से अधिक गायें बढ़ने लगी तो उसने अतिरिक्त गायें दान करना प्रारंभ कर दींखेतों से अनाज परिमाण से अधिक आने लगा तो उसने धान्य दान करना प्रारंभ कर दिया । व्यापार में मात्रा से अधिक आय होने लगी तो धन दान करने लगा। इससे उसकी ख्याति राजा से भी अधिक बढ़ गई थी|

अतः उत्तम आकिंचन्य धर्म ग्रहस्थों को शिक्षा देता है कि सीमा से अधिक की धन-संपत्ति, मकान-दुकान में ममत्व न रखें और साधुओं का उनके ही प्रति इस धर्म से संदेश है कि राग-द्वेष, लगाव, कषाय भय से दूर रहें यहां तक कि उनका हँसना भी परिग्रह में आता है, हास्य से भी वे दूर रहते हैं। हम सब यथाशक्ति इस धर्म का अनुपालन करें।

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