धाँसू कवि👉राजेन्द्र प्रसाद बहुगणा “आग” की धाँसू रचना
यह रचना मैंने देश के तमाम युवकों के लिये लिखी है,जो राजनितिज्ञों के इशारे पर अपनी शक्ति का दुरूपयोग कर रहे हैं।उनसे निवेदन है कि जो देश को लूट रहे हैं,भ्रष्टाचार कर रहे हैं, चोर बाजारी कर रहे हैं,मिलावट खोर हैं, देश की राजनिति में अहिसुष्णता फैला रहे हैं,साम्प्रदायिक दंगे करा रहे हैं,उनके विरूद्ध शक्ति का प्रमाण दें।
जिन्दा होने का प्रमाण दो
अपने खून को देखो,टटोलो,धमनियो को श्वांस दो
अपनी नब्ज को ढूँढोऔेर देखो प्राण का आभाष दो
जुबान है यदि इस मुँह में तो बोलकर विश्वास दो
अब जिन्दे हो तो हो खडे,यदि मर गये तो लाश दो
क्यों दो टके की राजनीति इस वतन को लूटती हेै
क्यो श्रृँखला जज्बा जवानी की पतन से टूटती है
अब सियासत क्यों जवानी को यतन से कूटती हैे
स्वर्ण सी मनको की माला भी रतन से छूटती हेै
हिन्दू,मुस्लिम, सिक्ख इसाई में जवानी बंट रही है
शक्तियां कोैमो ,कबीलो , जातियों में छंट रही है
ये नश्ल हिन्दुस्तान की फसल बनकर कट रही हेै
बे-वजह क्यों जवानी इस जिन्दगी से हट रही हेै
कौन हैे जो इन सम्प्रदायों ,मजहबो को बांटता हेै
कौन है जो मजहबो की भीड़ को यहाँ छांटता है
वो कौन है जो प्रेम की डोरी को जबरन काटता है
वो कौन है जो इस वतन को दीमको सा चाटता हेै
विश्वविद्यालय के गोदामो में हम सब सड़ रहे हेैं
वे-मौेसमी कीडे सियासी इन फलों में पड़ रहें हैं
शमशान,कब्रिस्तान में विद्यार्थी ही क्यों गड़ रहे हैं
शिक्षा के चन्दन वृक्ष पर अजगर,संपोले चढ़ रहे हेै
शिक्षा की बुनियादें उधेडो देखो कहाँ से हिल रही हेैं
शिक्षा में प्रदूषित पवन किस दिशा से मिल रही हेै
किस औजार से स्कूल की ये दीवारें छिल रही है
मुर्झा रही है क्यों कलि,मरूधान में जो खिल रही है
कुछ ना कुछ तो इस दिशा में शोध होना चाहिये
कुछ है जवानी की रवानी, प्रतिरोध होना चाहिये
शिक्षा जगत में भी सियासी गतिरोध होना चाहिये
अगर जवानी है बची तो फिर क्रोध होना चाहिये
कुछ तो मुर्दाे सी जवानी दल-दलो में खो रही हेै
वो दास्तां अब भी सियासी जल-जलों में हो रही है
अस्मिता स्वाभिमान की स्वाधीनता को धो रही हेै
माँ भारती अब क्यों दरिन्दो से दुखी हो रो रही हेै
इस देश को मुर्दा नहीं जिन्दो की गाथा चाहिये
जर्जर नही ,बूढा नही, अब यौवन से नाता चाहिये
यहाँ जो दे सके देवत्व-शक्ति का वो दाता चाहिये
इस देश को खिलती जवानी का विधाता चाहिये
आग हूँ, पागल नही हूँ,लिखते-लिखते जल रहा हूँ
इस देश में रहता हूँ, हिन्दुस्तान में मैं पल रहा हूँ
असमर्थ हूँ,पर आग के पथ पर बराबर चल रहा हूँ
मैं बुझी इस आग को मुँह की पवन से छल रहा हूँ।।
राजेन्द्र प्रसाद बहुगुणा(आग)
मो09897399815