पॉजिटिव आलेख। कोविड काल।👉डा.सुनील जैन “संचय”
परिस्थिति कुछ भी हो मनःस्थिति को संतुलित रखिए
मानवीय संवेदनाओं को संक्रमित होने से बचाएं
डॉ. सुनील जैन संचय, ललितपुर
हम सभी अवगत हैं, इन दिनों कोविड के संकट के दौर से पूरा विश्व गुजर रहा है।
भारत पर कोरोना का कहर वज्रपात की तरह बरसा है। कोरोना से ये जो मौतें हो रहीं हैं, वे महज एक आंकड़ा नहीं बल्कि किसी की पूरी दुनिया है। ऐसे समय में आदमी के साथ रिश्तों की भी मौत हो रही है। संक्रमित होते ही अपने भी पराए हो जाते हैं। रिश्तों की परिभाषाएं ही बदल गयीं हैं। जीवन के मायने बदल गए हैं। मौत मात्र अंकगणित रह गयी प्रतीत हो रही है।
कोरोना की इस लहर में इंसानियत कराह रही है ,मानवीय संवेदनाएं घायल अवस्था में हैं। नैसर्गिक संबंध भी अब कृत्रिम से नजर आ रहे हैं। लगता है जैसे कोरोना संक्रमण की इस दूसरी लहर में सामाजिक के साथ-साथ मानवीय संबंध भी संक्रमित होने लगे हैं।
सच यह है कि समूची वैश्विक धरती को अपना कुटुंब मानने वाले देश में एक वायरस का संक्रमण समूचे परिवार पर भारी पड़ रहा है। हमारे परिवार की संयुक्क्तता को यह महामारी इतनी तेजी से अकेला कर देगी इस तथ्य को लेकर समाज- मनोविज्ञानी तक अचंभित हैं।
लगता है कोरोना के बाद दुनिया और भयावह होगी। एक आत्मीय के जाने के आसूं सूखते नहीं कि दूसरी खबर आ जाती है। तस्वीर भयावह है।
अभी एकमात्र लक्ष्य संकट के दौर से गुजर रहे अपने भाइयों के आसूं पोछने का है। दर्द क्या होता है , जिनके घर से घर का मुखिया असमय चला गया, जिन्होंने अपनों को खोया है उनसे बेहतर कौन बता सकता है। परिवार पर आए अकस्मात अपार संकट की घड़ी में संकट से उबरने के लिए उन्हें तत्काल मदद की जरूरत है।
वायरस अदृश्य है,पर ईश्वर भी तो अदृश्य है, भरोसा रखिए :
पड़ोसी नाते, रिश्तेदार, मित्र यहां तक कि सगे संबंधी तक इस त्रासदी के बीच किनारा करते दिखाई दे रहे हैं, क्योंकि हर किसी को संक्रमित होने का भय है। वायरस अदृश्य है,अवश्य डरिए,पर ईश्वर भी तो अदृश्य है, भरोसा रखिए । डर से बड़ा कोई वायरस नहीं है और हिम्मत से बड़ी कोई वैक्सीन नहीं है। हम इस भय भरे माहौल में अपने सहज जीवन के सभी मूल्य यथा मित्रता, समाजिक संबंध, काम, स्नेह, धार्मिक और राजनीतिक लगाव सब भूलने से लगे हैं।भय के अति विस्तार को रोकने के लिए ज़रूरी है कि हम अपने भीतर की संवेदना को जीवित रखें. यही संवेदना हमारे भय को हमारा ही दुश्मन होने से रोक पाएगा।
इस भय में हम सभी को कोरोना फैलाने वाला ‘संभावित देह’ के रूप में देखने लगे हैं. हमारी बस एक ही चिंता रह गई है शायद – कि कहीं हम बीमार न हो जाएँ।
संवेदनाओं को जिंदा रखें :
यह वक्त आपसी तनाव का नहीं है, न ही घबराने का बल्कि एकजुट होकर लड़ने का है। हम सभी इस विपत्ति से भी निकलेंगे। मनुष्य की जिजीविषा का कोई तोड़ नहीं है, हम फिर खड़े होंगे। हम यह लड़ाई भी जीतेंगे मगर संवेदनाओं को जिंदा रखने की जिम्मेदारी भी हमारी ही है। ये वक्त है ‘परस्परोपग्रहो जीवानाम्’ , वसुधैव कुटुम्बकम , जैसे सूत्रों को धरातल पर उतारने का। ‘परहित सरिस धर्म नहिं भाई ‘का अर्थ है कि दूसरों की भलाई के समान दूसरा कोई धर्म नहीं है । जो व्यक्ति दूसरों को सुख पहुचाता है, दूसरो की भलाई कर के प्रसन्न होता है, उसके समान संसार में कोई भी व्यक्ति सुखी नहीं है ।
मानवीय संवेदनाओं से युक्त समाज ही किसी आपदा काल का डटकर मुकाबला कर सकता है। विपदा के इस काल में यदि समाज का दायित्व बोध मुखर दिखाई दे रहा है तो इसके पीछे निश्चित तौर पर हमारी संस्कृति की मजबूत जड़ें हैं।
कोरोना के संक्रमण काल ने हमें अपने व्यवहार का विश्लेषण करने का मौका भी दिया है।
कोरोना संक्रमण का दौर विकासवादी मानव को सीमा, संयम में रहने के लिए सृष्टि का बहुत बड़ा सबक है ।
हमारी अग्नि-परीक्षा का काल :
कोरोना महामारी हमारी अग्नि-परीक्षा का काल है। जिसने न केवल हमारी पारंपरिक सांस्कृतिक, धार्मिक उत्सवों-पर्वो में व्यवधान उत्पन्न किया है, बल्कि हमारी शैक्षणिक और आर्थिक गतिविधियों को भी बाधित किया है। इसने हमारे देश की जनसंख्या के एक बड़े वर्ग को भूख एवं अभावों की प्रताड़ना एवं पीड़ा दी है, अपनों से दूर किया है। रोजगार छीन लिये हैं, व्यापार ठप्प कर दिये हैं, संकट तो चारों ओर बिखरे हैं, लेकिन तमाम विपरीत स्थितियों के हमने अपना संयम, धैर्य, मनोबल एवं विश्वास नहीं खोया है। हम सब एक साथ मिलकर इन बढ़ती हुई चुनौतियों एवं संकटों का समाधान खोजने में लगे हैं। ये वाकई चुनौतीपूर्ण समय है।लेकिन मुझे विश्वास है कि यदि हम सब मिल कर सामना करें तो इस महामारी के कारण इस आपदा से उबर सकते हैं। मनुष्य की जिजीविषा के सामने कोई भी महामारी टिक नहीं सकती। इसलिए ही तो मानव तमाम अवरोधों के बावजूद आगे बढ़ता रहा है । अब कोरोना का भी अन्त होगा, हम यह जंग भी जीतेंगे। दुनिया फिर से पहले की तरह अपनी गति से चलेगी पर यह तभी संभव है जब सभी पात्र लोग कोरोना से बचने के लिए टीका लगवा लें ।
रखें आशावादिता :
आज जब चारों ओर कोरोना महामारी के चलते निराशा दिखाई दे रही है तो ऐसे में जीवन के लिए रामवाण औषधि सिद्ध हो सकती है आशावादिता। निराशा मानव मन को नकारात्मकता की खाई में झोंक देने के लिए विवश कर रही है तो ऐसे में आशावादिता जीवन में नई ऊर्जा, स्फूर्ति और नई आशा की किरण बन शक्ति का संचार करते हुए नए जीवन का संचार कर सकती है।
सकारात्मकता हमें चुनौतियों से लड़ने की राह दिखाती है :
परिस्थितियां कैसी भी हों, यह हमारे चित्त पर आश्रित है कि हम जीवन में नकारात्मक सोच के खर-पतवार बोयें या सकारात्मक सोच के ऊंचे फलों से लदने वाले वृक्ष लगाएं! पहले का उत्प्रेरण कुंठा, वैमनस्य, होड़, भय और दुर्भावना जैसे निगेटिव मानस में होता है, तो दूसरे का उदार, प्रसन्न, स्वस्थ, आत्मविश्वास से भरे सकारात्मक मन में। मृत्यु तो एक दिन सबको आनी है फिर भय कैसा!
वैज्ञानिक परीक्षणों से यह सिद्ध हो चुका है कि सकारात्मक सोच हमारे भीतर सुख, सुरक्षा और आनंद के भाव जागृत करने वाले जैविक रसायन उत्पन्न करता है, साथ ही शरीर की सुरक्षा प्रणाली में चार चांद लगाकर हमें अनेक प्रकार की रुग्णताओं से मुक्त रखने में सहायक साबित होता है। यही सकारात्मकता हमें जीवन की कठिन से कठिन स्थितियों में हिम्मत रखने और तमाम चुनौतियों पर विजयी होने की ताकत देती है। कोरोना बचाव के नियमों को जीवन अनुशासन का भाग बनाना होगा। इनका स्वतः स्फूर्त अनुपालन दूसरों के लिए प्रेरक भी बनेगा।
मनःस्थिति को संतुलित रखिए :
परिस्थितियां तो अनुकूल प्रतिकूल होती थी होती हैं और होती रहेंगी। ये तो हमारी प्रतिक्रिया है जो महत्वपूर्ण है कि हम किसी घटना को किस रूप में लेते हैं। परिस्थिति कुछ भी हो मनःस्थिति को संतुलित रखिए ।
यह भाव सभी में उभरना चाहिए कि हम इस मुश्किल महामारी से लड़ेंगे और जीतेंगे भी। यही भाव हमें संकट से उबरने की ताकत देगा।
मानवीय संवेदनाओं को कोरोना संक्रमण से बचाएं, समाज में सौहार्द और सहिष्णुता बनाए रखें।
कालाबाजारी न करें :
कालाबाजारी कर किसी की बेबसी और लाचारी का फायदा न उठाएं। कोरोना संक्रमण काल में समाज की विद्रूपता की भी कई घटनाएं सामने आई हैं और व्यथा के कारोबारी ऐसे समय में भी लाभ उठाने की कोशिश में जुटे हैं। लेकिन बहुत बड़ी संख्या उन लोगों की है जो पूरी संवेदना से परेशान हाल लोगों के साथ हैं।
भयावह परिस्थिति का सामना जीवनशैली में बदलाव से संभव :
भारत की जीवनशैली गतिशील और परिवर्तनशील है। इस जीवन पद्धति में गजब की आत्म रूपांतरण शक्ति है। प्लेग, फ्लू जैसी विश्वव्यापी महामारियों से जूझते हुए भारत ने विषम परिस्थितियों का धैर्यपूर्वक सामना किया। कोविड 19 की जानलेवा चुनौती है।
मनुष्य कोरोना पर विजय प्राप्त करेगा ही, जीवन तथा संबंध भी फिर पटरी पर लौट आएंगे । इच्छा, आकांक्षा और अभीप्सा मनुष्य को सदा आगे ले जाते रहे हैं। इस बार भी सफलता दिलाएंगे। भयावह परिस्थिति का सामना जीवनशैली में बदलाव लाकर ही सम्भव है। परंपरागत भारतीय जीवनशैली स्वास्थ्य केन्द्रित है। हर नागरिक को ज़िम्मेदारी पूर्वक काम करना होगा, बारबार हाथ धोना, मास्क लगाना, सामाजिक दूरी बनाए रखना जैसी सावधानियां बरतनी होंगी।
महामारी ने वैसे भी जीवनशैली को काफी कुछ बदल दिया है, लेकिन यह बदलाव भय आधारित है। हम सबको स्वयं जरूरी बदलाव करने चाहिए। साथ ही हर किसी को अपने शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के प्रयास करने होंगे। सौभाग्य से भारत में खाना पकाने की पारंपरिक शैली में सदियों से हल्दी, दालचीनी, काली मिर्च, अदरक, लौंग जैसे मसालों का प्रयोग होता रहा है जिनके औषधीय गुण सर्व विदित है।इस समय लोगों को अपने स्वास्थ्य के लिए योग का अभ्यास करते रहना चाहिए।
करें मन को मजबूत :
हमें सम्हलने की जरूरत है, एक दूसरे का साथ देने की जरूरत है। यदि मन मजबूत होगा तो हम इस महामारी को हराने में कामयाब होंगे। इसके लिए हमें मन को मजबूत बनाना होगा, घबराने से समस्या का हल नहीं निकलने वाला। मन को अच्छा रखिए परिणाम सार्थक होंगे।
तन की बीमारी को मन पर हॉबी होने से बचाएं। यह जंग बहुत हद तक मन को मजबूती प्रदान कर सकारात्मक सोच के साथ जीतने में कामयाब हो सकते हैं।
आध्यात्मिक दृष्टि जागृत करें :
अपने भीतर आध्यात्मिक दृष्टि जागृत करें।
आध्यात्मिकता का संबन्ध मनुष्य के आंतरिक जीवन से है और इसकी शुरुआत होती है– उसकी अंतर्यात्रा से। वे सभी गतिविधियाँ, जो मनुष्य को परिष्कृत, निर्मल बनाती हैं, आनन्द से भरपूर करती हैं, पूर्णता का एहसास देती हैं, वे सब आध्यात्म के अन्दर आती हैं । जो व्यक्ति आध्यात्मिक डगर पर आगे बढ़ते हैं, उनमें अदम्य साहस, सशक्त मन, स्वस्थ शरीर व संतुलित भावनाओं का होना जरूरी है। मानव की अगणित समस्याओं को हल करने और सफल जीवन जीने के लिए अध्यात्म से बढ़कर कोई उपाय नहीं है।
किसी का हाथ छुना नहीं पर।
किसी का साथ छोड़ना नहीं।।
डॉ. सुनील जैन संचय
ज्ञान-कुसुम भवन
नेशनल कान्वेंट स्कूल के सामने, नई बस्ती, ललितपुर, उत्तर प्रदेश
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