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Home›लेख-विचार›क्या सत्य का ठेका किसी एक व्यक्ति या वर्ग ने ही ले रखा है?

क्या सत्य का ठेका किसी एक व्यक्ति या वर्ग ने ही ले रखा है?

By पी.एम. जैन
January 3, 2020
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हमारा लोकतंत्र हमें जिस अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता देता है, उस स्वतंत्रता की सीमा होती है। जब यह स्वतन्त्रता किसी के मान-सम्मान अथवा देश की एकता,अखंडता और शांति के लिए खतरा बनने लगती है तो सहनशीलता से परे हो दंडनीय अपराध बन जाती है। बीते दिनों हम लोगों के द्वारा ही चुने गए प्रतिनिधियों ने संसद में कुछ कानून बनाए। कानून बन जाने पर हम उन कानूनों के विरोध में सड़कों पर हिंसा का तांडव करने उतर आए।जबकि हम ही वो लोग थे जिन्होंने ऐसे कानून बनाने वाले प्रतिनिधियों को चुनकर संसद में भेजा था। एक साथ ही दो विरोधाभासी कृत्य। या तो हमने जन-प्रतिनिधि चुनने में विवेक का इस्तेमाल नहीं किया या फिर हमारा आत्मविश्वास इतना  कमजोर है कि हम बिना अपना बुरा-भला सोचे किसी के भी बहकाए में  आकर असमाजिक हो  विरोध के लिए खड़े हो जाते हैं ।परिणाम होता है कि हम अगले-पिछले कितने ही पूर्वाग्रहों से ग्रसित होकर सोचे समझे बिना अपने विचार व्यक्त करने लगते हैं, जो किसी न किसी प्रकार से सामाजिक असमानता की खाई को और चौड़ा करने का काम करते हैं। सोशल मीडिया के माध्यम से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जिस प्रकार से दुरुपयोग इन दिनों किया जा रहा है उससे  अधकचरे राजनीतिक ज्ञान और सामाजिक जिम्मेदारियों के बीच सभी संवाद विद्वेष पर आधारित एक कल्पना को ही उजागर कर रहे हैं।  करना था सामाजिक प्रगति का चिंतन। ऐसा न करके स्वाभाविक ही है कि हम अपने विचारों को संकीर्ण बना अपने लिए और समाज के लिए दुखदायी स्थिति ही पैदा करेंगे।  बार-बार नकारात्मकता की बातें की जाएंगी तो स्वाभाविक ही है कि यही नकारात्मक चिंतन समाज को गलत दिशा में ले जा सकता है। अभिव्यक्ति की  स्वतंत्रता जब स्वछंदता में बदल जाती है तो विकास नहीं विनाश ही होता है। जहां तक असामाजिक तत्वों द्वारा की जा रही गतिविधियों का सवाल है तो यह असामाजिक तत्व कहीं न कहीं राजनीतिक संरक्षण प्राप्त करने वाले लोग ही होते हैं।    हमारे नेता ऐसी घटनाओं से तात्कालिक लाभ उठाने के लिए या किसी वर्ग, जाति या क्षेत्र विशेष को फुसलाने के लिए उत्तेजक बात कह देते हैं।इससेवे राजनेतिक लाभ तो प्राप्त  कर लेते हैं पर वातावरण खराब हो जाता है। सामाजिक सौहार्द्य का संतुलन बिगड़ जाता है। इस तरह की टिप्पणियों से लोग उत्तेजित हो जाते हैं और उनका कथित शांतिपूर्ण विरोध किसी हिंसक बलवे में बदल कर व्यक्तिगत तथा सार्वजनिक संपत्तियों को नुकसान पहुंचा कर जन-धन दोनों को क्षति पहुंचाता है। संपूर्ण जन-जीवन ठहर सा जाता है।  हिंसा और आगजनी से भरा हुआ आक्रोश समस्याओं का समाधान प्रस्तुत न करके उनको और जटिल बना देता है।  

ऐसे में याद आते  हैं  महावीर के सूत्र  अनेकांत, सहिष्णुता और सह-अस्तित्व। पूर्व राष्ट्रपति डा. राधाकृष्णन ने कहा था आज का लोकतंत्र महावीर के अनेकांत दर्शन का फलित है।सत्ता के विरोध में मुखर लोगों को भी जहां शांति से सहन किया जाता है वही स्वस्थ लोकतंत्र है। लोकतंत्र की आधारशिला है। अनेकांत का मूल है -अपने विचार का आग्रह मत करो। दूसरे के विचारों को भी समझने का प्रयास करो। लोकतंत्र इन्हीं के आधार पर चलता है। प्रजातंत्र में कोई एक व्यक्ति मुख्य बनता है तो बाकी सारे नकारे नहीं जाते, अपितु गौण होकर पीछे चले जाते हैं। एक ही पद पर अनेक मुख्य बैठेंगे तो व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो जाएगी। अनेकांतिक दृष्टि से मानसिक अहिंसा की सृष्टि होती है, जिससे अहंकार का विनाश होता है। इन दिनों सत्ता और प्रभुता कि दौड़ में लोकतंत्र के मन्दिर संसद भवन  में भाषा की मर्यादा, अनुशासन हीनता,शिष्टाचार की सारी सीमाएं तोड़ी जा रही हैं।अनेकांतिक दृष्टि ही वर्तमान की सारी राजनेतिक सामाजिक अस्तव्यस्तता का एकमात्र समाधान है। जो सिर्फ अपनी ही बात नहीं करती, बल्कि सामने वाले की बात को भी धैर्यपूर्वक सुनती है। लेकिन आज के दौर में आग्रह को बहुत बढ़ावा मिला है। जिसने जो देखा या जाना, वह उसी पर अड़ गया कि बस मैं जो कहता हूँ वही सत्य है। क्या सत्य का ठेका किसी एक व्यक्ति या वर्ग ने ही ले रखा है? इस प्रबल अहंकार और इतने  बड़े आग्रह के चलते सत्य नीचे दब जाता है। और ऊपर तैरता रह जाता है केवल उस व्यक्ति का विचार।

महावीर ने कहा है कि -जीने के लिए विरोध और संघर्ष आवश्यक है। यह विरोध और संघर्ष विकास का सूचक है। संघर्ष की चिंगारी न होगी तो विकास का प्रकाश न होगा। लेकिन संघर्ष की यह चिंगारी केवल प्रकाश फैलाए, विनाश नहीं। जय-पराजय एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। आज हर क्षेत्र में बस मेरी ही जय हो इस एकांगी रुख के ही कारण विवाद हो रहे हैं। कोशिश होनी चाहिए कि ऐसी परिस्थितियां न बनें कि लोग उन्मत्त हों। इसीलिए हर घटना और प्रकरण को अनेकांत तथा सह-अस्तित्व के दृष्टिकोण से व्यवहारिकता के धरातल पर सोचा समझा जाना चाहिए। ऐसा होते ही हमें मंगल ग्रह पर जीवन तलाश करने कि जरूरत नहीं होगी इस धरती पर ही  जीवन मंगल मय हो जायेगा।

जज (से.नि.) 

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