धर्म मात्र सुनने,बोलने से नहीं आचरण से होता है-डॉ.निर्मल जैन (से.नि.) न्यायाधीश
युग बीतते हैं, सृष्टियाँ बदलती हैं। दृष्टियों में भी परिवर्तन आता है। कई युगदृष्टा जन्म लेते हैं। अनेकों की सिर्फ स्मृतियाँ शेष रहती हैं। लेकिन कुछ व्यक्तित्व अपनी अमर गाथाओं को चिरस्थाई बना देते हैं। ऐसे ही निर्लिप्त, निरपेक्ष, अपरिग्रह के प्रतिमूर्ति, स्वावलंबी जीवन जीने वाले संत के प्रवचन का आयोजन किया गया। आयोजक ने एक दिन पहले ही सारी तैयारियां पूरी कर दी कि सुबह होते ही प्रवचन शुरू हो जाएँ।
प्रवचन सुनने के लिए आस-पास, समाज के सभी जनमानस उपस्थित थे। लेकिन आयोजक कहीं दिखाई नहीं दे रहा था। समाज के लोगों में कानाफूसी होने लगी कि -कैसा दिखावटी भक्त है। प्रवचन का आयोजन करके स्वयं गायब हो गया। प्रवचन खत्म होने के कुछ पहले ही सभा-स्थल में जैसे ही आयोजक आया लोग कानाफूसियां करने लगे। उसको लेकर उपहास करना शुरू कर दिया।
आयोजक ने संत को प्रणाम किया और क्षमा मांगते हुये कहा -सुबह ही अचानक पत्नी अस्वस्थ हो गयी। इसलिए घर के सारे अवश्यक काम, पत्नी की दवा आदि का प्रबंध मुझे ही करना पड़ा। काम निपटा कर इधर आने को निकला तो वयोवृद्ध पड़ोसी परेशान से बाहर खड़े मिले। उन्होने मुझसे कहा –बेटा मुझे अस्पताल तक छोड़ दोगे? डॉक्टर से मिलने का समय निकल रहा है, देर से कोई सवारी नहीं दिखी। मैं मना नहीं कर सका। उन्हे अस्पताल पहुंचा कर आ रहा हूँ। मैंने सोचा आपका प्रवचन तो बाद में भी सुन लुंगा इस समय यही जरूरी लग रहा है। अनुपस्थिति के लिए क्षमा चाहता हूँ। आयोजक की बात सुनकर संत ने पहले तो सभी समाज-जन को कहा -यह कोई उपहास का प्रसंग नहीं है। फिर आयोजक से बोले -तुम्हें किसी क्षमा की या शर्मिंदा होने की जरुरत नहीं है। तुम तो प्रशंसा के पात्र हो। उन सबसे बेहतर हो जो रोज उपदेश सुनते हैं लेकिन उनको अपनी दिनचर्या में ढालते नहीं। आज कर्तव्य पालन के बारे ही में मैं यहाँ जो प्रवचन कर रहा था तुम बिन सुने ही उसका पालन कर रहे थे। प्रवचन सुनने की जगह कर्म को महत्व देकर मेरी शिक्षा को तुमने बिल्कुल ठीक ढंग से समझा है। तुम्हें अब किसी प्रवचन सुनने की आवश्यकता नहीं है।
संत ने कहना जारी रखा -मैं यही तो समझाता हूं कि अपने विवेक और बुद्धि से सोचो कि कौन सा काम पहले किया जाना जरूरी है। गृहस्थ को अपना परिवार व्यवस्थित रखना, संतान को उच्च शिक्षित एवं संस्कारवान बनाना, समाज और देश के प्रति अपने दायित्व निभाना पहला धर्म होता है। वैसे भी धर्म कोई करने की क्रिया थोड़े ही है। यह तो मर्यादा का वो नियंत्रक है जो हमारी हर क्रिया से संबद्ध रहता है। हमें पथ-भ्रष्ट होने से बचाता है।
तुम अगर बीमार पत्नी को छोड़ कर मेरा प्रवचन सुनने को प्राथमिकता देते तो उनकी सुश्रुसा, दवा के बगैर बीमारी बढ़ सकती थी। घर के काम न करते तो परिवार-जन को असुविधा हो जाती। और सर्वोपरि, तुमने अपने पड़ोसी की जो मदद की वही तो सबसे बड़ा मानव धर्म है। अगर तुम यह सब न करके प्रवचन सुनने आ जाते तो मेरा यहाँ आना और प्रवचन देना ही व्यर्थ हो जाता। मेरे प्रवचन का सार यही है कि धर्म मात्र सुनने से नहीं आचरण से होता है। महावीर भी तो हम सब को यही देशना दे कर गए हैं कि -मुझे सुनना और मेरे अनुयायी बन कर मेरा जयकारा बोलना ही काफी नहीं। मेरे अनुगामी बनो, जीव-मात्र की रक्षा करो। जिस राह पर मैं चला उस पर चलो।
जज (से.नि.) डॉ. निर्मल जैन