सामाजिक संदर्भ?🌹परेंशा तो यहाँ सब है मगर ये डर भी है मन में, कि बिल्ली के गले में आगे बढ़ के घंटी कौन बाँधे?👉डॉ. निर्मल जैन (जज)
आज प्रत्येक ग्रुप में ग्रुप-स्वामी की टिप्पणी आती है कि केवल सामाजिक संदर्भ वाले संदेश/आलेख ही भेजाकरें। यह सामाजिक संदर्भ है क्या?
👉क्या एक दूसरे की पीठ थपथपाना है या समाज में जो नहीं होना चाहिए उसको उजागर कर उनका समाधान प्रस्तुत करना। कभी-कभी समाज में हो रही अप्रिय गतिविधियों को छूकर निकलने वाले संदेश और आलेखों को लेकर भाषा कि मर्यादा लांघती टिप्पणियाँ भी पढ़ने को मिल जाती हैं। क्या समाज में विसंगतियों, विकृतियों का रोना, रोना मात्र ही सामाजिक संदर्भ होता है अथवा इन विकृतियों, विसंगतियों के कारण और कारण का शव-विच्छेदन करके जनमानस के सामने उनका समाधान प्रस्तुत करना है। अथवा नेट की चौपाल पर बैठकर ठकुरसुहाती वार्ताओं से हवाई योजनाएं बनाना, अपनी अमूल्य धरोहर (आगम) को लेकर अपने हितानुसार भिन्न-भिन्न टिप्पणियाँ करना या उस वटवृक्ष में से अपने निहितार्थ शाखाओं को पल्लवित कर उनका पोषण करना?👉कभी कहा जाता था कि-जब तलवार मुकाबिल हो तो अखबार निकालो! अब तो हमारा सामना तलवार से नहीं समाज में पनप रही उस खरपतवार से है जो हमारा मूल स्वरूप ही बदल दे रही है। खरपतवार को नष्ट करने के लिए किसी तेज धारदार उपकरण की जरूरत पड़ती है। आज के संदर्भ में यह तेज धार उपकरण तीखी और निर्भीक कलम के साथ मुखर एवं निर्लोभी पत्रकारिता। जिसका लक्ष्य कुछ पाना नहीं अपितु जागृति पैदा करना हो।
👉यह स्थिति जिन कारण और कारक से बनी है उनका चेहरा समाज के सामने लाये। समाज को आगाह करे कि अब तक जो हो चुका जो हो चुका अब तो चेतन हो जाएं। समाज और धर्म को कपोल-कल्पित आडंबर, कर्मकांड और आर्थिक-मायाजाल से अलग करें। धर्म की प्रक्रिया में से भी अनावश्यक जटिलताओं को दूर किया जाए। जिससे हर कोई सम्यक रूप से अपना लें। प्रक्रिया भी इतनी प्रभावी हो कि जो हमसे इतर-विचारधारा के लोग हैं वो भी हमारे धर्म, हमारी विचारधारा और उनसे होने वाले सामाजिक, स्वास्थ्यकर लाभों को देखकर आकृष्ट हो कर हममें शामिल हो जाएँ।
👉केवल रोग का निदान ही काफी नहीं। पूर्ण स्वस्थ तब होते हैं जब निदान के साथ रोग का कारण और उसको दूर करने वाली औषधि का सेवन भी किया जाए। ऐसे ही एक ओर अहिंसा का जयकारा लगाते रहें दूसरी ओर अपने किसी पूर्वाग्रह या दुराग्रह से ग्रसित हो विरोधी के प्रति हो रही हिंसा को प्रोत्साहित,अनुमोदन भी करते रहें। अपरिग्रह के गीत गाते रहें और बिना परिग्रह के कोई धार्मिक प्रक्रिया भी संपन्न ना हो। एकता के उपदेशों के नारे के बीच अनेक झंडों में बंटे रहें। इन सब बातों से चेहरे तो चमक सकते हैं लेकिन स्थिति में कोई सुधार नहीं होगा। अपने हित-अहित, शत्रुता ,मित्रता से अलग हो विसंगतियों,विकृतियों का कारण तलाश किया जाए। फिर उनका समाधान को रचनात्मक रूप दिया जाए।👉यही हैं सामाजिक संदर्भ से जुड़े कुछ सरोकार। अब अगर कारण और समाधान का सत्य किसी को नहीं पचता तो उस सत्य को कोई सामाजिक संदर्भ से परे कैसे ठहरा सकता है?👉🍁जज (से.नि.) डॉ. निर्मल जैन🍁