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Home›लेख-विचार›हमारे लोभी मन ने ठग विद्या जन्म-जन्मांतर से सीख रखी है

हमारे लोभी मन ने ठग विद्या जन्म-जन्मांतर से सीख रखी है

By पी.एम. जैन
December 23, 2019
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        हमारा जीवन एक प्रतिस्पर्धा है, एक गलाघोट संघर्ष है। जीवन की इस लंबी यात्रा में जिस तरफ भी अपनी दृष्टि दौडाएं  समस्याओं के अंधड़  के अलावा कुछ दिखाई नहीं देता। कभी-कभी तो एहसास होता है कि पूरी यात्रा निराशा और थकान भरी रेगिस्तान की यात्रा की तरह थी। कहीं कोई हरियाली की एक झलक भी नहीं। यह सब कुछ इसलिए कि हम असार को सार समझ बैठे और सार की ओर से आंखें फेर लीं। हम भूल गए कि इस असार का सारा संबंध बाहर से है और यह बाहर हमारे अंदर जो है इस बाहर से अपना अलग अस्तित्व रखता है।
पूरी उम्र हमने बाहर को  ही बटोरने की कोशिश में गुजार दी। इस बाहर की तो  कोई थाह  नहीं। कोई सीमा ही नहीं है। जबकि हमारा जीवन सीमित है, उसका अंत निश्चित है। इसलिए हम अंतिम पल तक बाहर को कितना ही बटोरते रहें  फिर भी जन्मों-जन्मों तक भटकते रहने पर भी बाहर को पूरा बटोर नहीं सकते। हमें तो ब्रह्मांड की संपूर्ण संपदा से भी संतुष्टि  नहीं मिलेगी क्योंकि हमारे लोभी मन ने ठग विद्या जन्म-जन्मांतर से सीख रखी है। ऐसा याचक बन गया है जिसकी झोली कभी भरती ही नहीं। जिस व्यक्ति में जितनी अस्वीकर की क्षमता है वह उतना ही बड़ा संयमी और संसार का सुखी और धनी व्यक्ति है। जिसे सब कुछ चाहिए और किसी भी शर्त पर चाहिए वह संसार का सबसे बड़ा दुखी व्यक्ति है। 👉वास्तव में इस बाहरी संसार में हमारे लिए न कोई मजिल है, न कोई किनारा है और कोई क्षितिज भी नहीं है। हम जिसे भी मंजिल समझ कर पैर रखते  हैं वह मंजिल नहीं होती अपितु भटकाव होता है। हमें हर किनारे के बाद फिर नया किनारा मिलता है, हर सागर के पार फिर सागर से सामना होता है, क्षितिज  के पार एक और क्षितिज। इंद्रियों से प्राप्त सांसारिक सुख, सुख नहीं है मात्र सुख आभास है। हम इसमें ही भटक-भटक कर जीवन भर खोते रहते हैं, पाते कुछ भी नहीं। सारी उम्र यह खोना-पाना जारी रहता है। मुक्ति की पगडण्डी ओझल होती जाती है, हम संसार के मलवे में धंसते ही जाते हैं।👉धन-संपदा ही नहीं हम विचारों को भी बटोरते, पालते-पोसते  हैं। बढ़ते-बढ़ते यह विचार हमारे मन को पूरी तरह आवृत्त कर लेते हैं तो हम विवेक शून्य हो बेचैन, आंदोलित और अशांत जाते हैं। मन में रह जाती है केवल विचारों की भीड़। फिर हम जीते  नहीं अपितु सुबह से शाम तक, जन्म से मृत्यु तक इन्ही विचारों के सागर में डूबते उतरते रहते हैं। सांसारिक भोगों की बाहर से चमकती, दमकती जिस नक्काशी की हुई छड़ी के सहारे हम इन इस बीहड़ जीवन की पगडंडी को पार करना चाहते हैं वह छड़ी बाहर से आकाशीय बिजली की तरह चमक अवश्य रही है लेकिन विषय-विकारों के कारण जर्जर हो चुकी है उसके  अंदर का सार-तत्व नष्ट हो चुका है ।
👉हमारी एक और सबसे बड़ी आंतरिक कमजोरी है कि हमें ज्यों-ज्यों सत्ता और संपत्ति मिलती है त्यों-त्यों हमारी लालसा बढ़ती जाती है। इस लालसा को पूरा करने में हम न शांति से जी पाते हैं, न ही हम  प्राप्त सुविधाओं की ठंडी छांव में विश्राम कर चैन की बंसी बजा पाते हैं।  यह ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हमारा अंतर-व्यक्तित्व ही ऐसा बन गया है। हम जी-जी कर नहीं लेकिन मर-मर, टूट-टूट कर अपना फैलाव बढ़ाते ही जाते हैं। अपनी चाह की प्यास बुझाने के लिए जिंदगी भर जूझते ही रहते हैं। लेकिन हमारी यह चाह, यह तृष्णा मृगतृष्णा बन कर रह जाती है। हम सब कुछ पाकर अपने आप को खो बैठते हैं। 
👉लेकिन जैसे ही हम इस फैलाव को सीमित कर अपनी खोज को बाहर की ओर से हटा कर अपने भीतर की तरफ शुरू कर देते हैं।  सत्य हमारे सामने प्रकट हो जाता है। हमारी अपने आप से पहचान हो जाती है। फिर हम वो याचक नहीं रह जाते जो अपने लिए संपदा के साथ तनाव इकठ्ठा करता रहता है। हम बन जाते हैं ऐसे दातार कि हमें जितना मिलता है उतना ही बांटने लगते हैं। हम पा लेते हैं उस शांति को  जो केवल और केवल शांति को ही जन्म देती है। हमारी यात्रा नीचे की ओर नहीं ऊपर की ओर, मोह-माया के कीचड़ की ओर नहीं खुले आकाश की ओर शुरू हो जाती है। परिवर्तन के इसी क्षण से सूरज की किरणें हंस-हंसकर हमारी सफलता को नमस्कार करती हुई स्वागत करेंगी और यही होगा हमारा आत्मा से परम आत्मा बन जाना।    

👉डॉ. निर्मल जैन (से.नि.जज)
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