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धर्म-कर्म
Home›धर्म-कर्म›मूल कर्तव्यों के बिना सारे कर्मकांड और व्रत-उपवास सब बेकार और निराधार हैं👉जैनाचार्य 108 श्री ज्ञानभूषण जी महाराज

मूल कर्तव्यों के बिना सारे कर्मकांड और व्रत-उपवास सब बेकार और निराधार हैं👉जैनाचार्य 108 श्री ज्ञानभूषण जी महाराज

By पी.एम. जैन
May 2, 2020
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लॉकडाउन के दौरान “समय तुम पर भी है और समय हम पर भी है” तो फिर आत्मचक्षुओं को खोलने वाला वात्सल्यमूर्ति आचार्य श्री द्वारा लिखित दीर्घात्मक लेख पढ़ते-पढ़ाते हैं 👉क्षुल्लिका ज्ञानगंगा जी
होड़ल(हरियाणा)- आज कलयुग में कुछ लोगों का “असफलता” को केवल कलयुग पर थोपना उचित नहीं है| “कलयुग का प्रभाव क्या अभी से इतना विषधर हो गया है कि मानव जाति अपने मूलकर्तव्यों (धर्म) को दिन-प्रतिदिन भूलती जा रही है?” कदापि नहीं!! यह कलयुग का प्रभाव कम और समाज के मूल कर्तव्यों से विहीन होने,भारतीय संस्कृति के सुसंस्कारों को भूलने और अहंकार की दीर्घता को अधिक दर्शाता है|
👉 हमें कलयुग की आलोचना नहीं करनी चाहिए क्योंकि यह प्राकृतिक विधि-विधान का समयचक्र है| कलयुग पर दोषारोपण किये बिना हमें “कलयुगी समुद्र का मंथन करना चाहिए और विष छोड़कर सदैव अमृत प्राप्ति की जिज्ञासा रखनी चाहिए|” गौरतलब है कि कलयुग ने आज भी हमें बहुत कुछ दिया है! जरूरत है तो निजआलोचन करते हुए कलयुगी समुद्र में रत्न ढूँढने जैसे पुरूषार्थ की!
👉मानवजाति की प्राचीनतम आयु की तुलना से आज कलयुग 90 वर्ष तपस्या नहीं करवाता बल्कि यह 90 दिन की तपस्या से ही बहुत जटिल से जटिल समस्याऐं सुलझा देता है!👉कलयुग ने मोक्ष नहीं दिया तो मोक्षमार्ग तो दिया है और विविधताओं के बीच वैराग्य को आज भी बरकरार रखा है|कलयुग में साक्षात तीर्थंकर आदि भगवंतों की कल्याणकारी वाणी सुनने को नहीं है तो शास्त्र-ग्रंथों के माध्यम से लिखित और जीवंत संत स्वरूप में सुनने व पढ़ने के लिए कल्याणकारी वाणी एवं जिनवाणी तो है| कलयुग में स्व-पर के कल्याणकारी सच्चे संतों के दर्शनार्थ या प्रवचन आदि के लिए श्रावकों को जंगल, पर्वत आदि में नहीं भटकना पड़ता बल्कि कलयुग में साधु-संत नगर-शहर, गाँव- कस्बों के धार्मिक या सामाजिक स्थलों में सुगमता से विराजमान मिल जाते हैं! इसके अतिरिक्त अनेकों ऐसे तथ्य भी हैं जो कलयुग में सुगमता से प्राप्त हो जाते हैं|
👉युग-युगांतरों से मूलधर्म का साफ-साफ मतलब, मानवजाति के अपने मुख्य कर्तव्यों से है और कर्तव्य को ही धर्म कहते हैं! जिनके पालन किये बिना सारे कर्मकांड(धार्मिक क्रियाऐं) करना, व्रत-उपवास करना अधिकाँश तौर पर “असफलता” को जन्म देते हैं| वर्तमान की चकाचौंध में आज मानवजाति कर्तव्य विहीन होती जा रही है! जिसके कारण कर्मकांड, पूजा-पाठ आदि शंका और संकोच के दायरे में आते जा रहे हैं|👉 अगर कलयुग में भी प्रत्येक देशवासी ईमानदारी से अपने पदानुसार अपना-अपना कर्तव्य(धर्म)निभाएँ तो आंशिक तौर पर ही सही लेकिन “राजा भरत चक्रवर्ती जी और राजा राम जी” के समयकाल जैसा समय, भारत भूमि पर आज भी पुन: स्थापित हो सकता है!
👉 धर्म-कर्म और कृषि प्रधान मेरे देश में तीर्थंकर भगवान महावीर भक्त, श्री रामभक्त, नारायण कृष्ण भक्त आदि जैसे भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों के अनेकों भक्तगण हैं जो स्व-सम्प्रदाय अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार से पूजा-पाठ करते/कराते हैं और तथाकथित इन्हीं भक्तगणों में कुछ भक्तगण ऐसे भी मिलेंगे जिन्होंने “चंद मुद्दों” के कारण अपने ही माता-पिता या भाई-बन्धुओं के विरूद्ध कोर्ट में मुकदमा दर्ज करा रखा होगा! क्या ऐसे कुकृत्य करने वाले भक्तगणों को भगवान की पूजा-पाठ, कर्मकांड सुखद अहसास कराऐंगी?.कदापि नहीं! क्योंकि किसी भी भगवान ने भगवान पद की पदवी से पूर्व के जीवन काल में भी स्वयं अपने माता-पिता, भाई बन्धुओं के विरूद्ध कोई कर्तव्य विहीन कार्य नहीं किया था और न ही संसार की मानवजाति को कोई अहितकारी संदेश दिया था|
👉मैं इसीलिए कहता भी हूँ कि “हम जिस भगवान की पूजा-पाठ करते हैं तो उन भगवंतों जैसा हमारा,रहन-सहन ना हो, तो कोई बात नहीं लेकिन उन भगवंतों जैसी निर्णायक👉नीति, खान-पान और आचार-विचार अवश्य होने ही चाहिए!”
👉कहने का तात्पर्य है कि हम सभी को अपने-अपने मूलधर्म यानी मुख्य कर्तव्यों का दृढ़ता से पालन करना चाहिए भगवान श्री राम, भगवान श्री महावीर स्वामी जी या नारायण श्री कृष्ण जी के पीछे मत पड़ो बल्कि उन महानात्माओं द्वारा कही बातों के पीछे पड़कर उनकी बातों को पढ़ो और समझो, अगर उनके द्वारा कही हुई बातों का अपने जीवन काल में पूर्ण रूप से अनुसरण नहीं कर सकते तो👉आंशिक रूप में ही सही लेकिन भगवंतों की प्रमुख-प्रमुख बातों का और पूर्वजों से लेकर वर्तमान के महापुरूषों के अनुभवों की चर्चा और चर्या का कुछ तो अनुसरण अवश्य करो|
👉कहते हैं कि”होई है वही जो राम रच राखा” लेकिन मैं कहता हूँ कि “होई है वही जो कर्म रच राखा” क्योंकि जिस कर्मभूमि पर हमने जन्म लिया हैं उस कर्मभूमि पर कर्मों से ज्यादा न कोई ईमानदार है और न कोई भविष्य में ईमानदार होगा तो फिर हमें कलयुग या भगवान पर दोषारोपण कदापि नहीं करना चाहिए|
👉जैनधर्मानुसार आलोचना पाठ में कहते भी हैं👉”बहु कर्म किये मनमाने, कछु न्याय अन्याय नाहि जाने”
👉विशेष रूप से👉 जरा विचार कीजिए कि जब मानवजाति के मूल सम्बन्ध युग-युगांतर से निरंतर कलयुग में भी समस्त भूलोक पर स्थापित हैं तो फिर मानवजाति का भी मूलधर्म-कर्म के अन्तर्गत एक ईमानदार दायित्व होना चाहिए जिसमें सर्वप्रथम मानवजाति का प्रकृति (पर्यावरण) और राष्ट्रधर्म के प्रति सद्भाव-सदाचार होना चाहिए साथ ही माता-पिता का संतानों के प्रति, संतान का माता-पिता के प्रति,पति का पत्नी के प्रति, पत्नी का पति के प्रति, सासु का बहू के प्रति, बहू का सासु के प्रति, गुरू का शिष्य के प्रति, शिष्य का गुरू के प्रति, धर्मात्माओं का सच्चे धर्म के प्रति, साधर्मी का साधर्मी के प्रति, भाई का भाई के प्रति, बहन का भाई के प्रति, भाई का बहन के प्रति, मित्र का मित्र के प्रति, पडो़सी का पडो़सी के प्रति, राजा का प्रजा के प्रति,प्रजा का राजा के प्रति आदि जैसे अनेक संसारिक, व्यवहारिक, और धार्मिक मूल कर्तव्य हैं! जिनके प्रति सद्भाव,सदाचार सदैव कायम रहना चाहिए| कहते भी हैं कि👉 “कर्तव्य निष्ठ व्यक्ति ही धर्मात्मा होता है!” अगर👉केवल इन्हीं मूल कर्तव्यों का ईमानदारी से अनुसरण करें, पालन करें तो फिर👉कर्मकांड और व्रत-उपवास भी प्रभावशाली हो सकते हैं! और👉यदि “मुख में राम बगल में ईटें” रहीं तो सारे कर्मकांड, व्रत-उपवास करना/कराना सब के सब बेकार, निरर्थक और निराधार ही हैं|
👉कटुता से कहने का तात्पर्य है कि” किसी भी उपकारी के उपकार को भूलना सबसे बड़ा अधर्म है, पाप है”और यह विधि के विधान का इतना सूक्ष्म अधर्म(पाप)है कि इसकी प्रचण्ड ज्वाला(अग्नि) में सारे संचित पुण्य भी जलकर भस्म हो सकते हैं|
👉मानवजाति के कुछ लोग संस्कार विहीन(अभाव) होने के कारण मूलकर्तव्य भूलकर कुछ ऐसा भी करते हैं कि👉”जिंदा को मारे लात और मरने के बाद करें श्राद्ध” जोकि सर्वथा निन्दनीय और महा पापकृत्य हैं|
👉लेख की इति से पूर्व मैं समस्त देशवासियों से यह सौभाग्य पूर्ण बात भी कहना चाहता हूँ👉कि समस्त विश्व की भूमि में से मात्र भारत भूमि ही पृथ्वी का वह अंश है जिस पर विश्व पूज्यनीय भगवंतों ने जन्म लिया और लोककल्याण का उपदेश देकर स्व-पर का कल्याण किया है|आज हम सब भारतीय भी सौभाग्यशाली हैं कि हमने भी इसी भारत भूमि पर जन्म लिया है! लेकिन केवल स्वयं की बुद्धिमत्ता और अहंकार के कारण कर्तव्यविहीन होते जा रहे हैं साथ ही अधिकाँश भारतीय पाश्चात्य(विदेशी)परम्पराओं, जीवनचर्या और खाद्य पदार्थ(नई-नई डिशेस) की ओर दौड लगा रहे हैं|” जोकि चिंतनीय है|
👉दीर्घात्मक लेख पढ़ने-पढ़ाने में आपके द्वारा उठाए गए काया कष्ट हेतु बहुत-बहुत “साधुवाद”👉21 वीं सदी के वात्सल्यमूर्ति जैनाचार्य 108 श्री ज्ञानभूषण जी महाराज”रत्नाकर”
संकलन👉वाणी प्रखर क्षुल्लिका 105 ज्ञानगंगा माता जी
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