जय जिनेन्द्र भेद-भाव करते हैं वे ही जिन की पूँजी कम है
उस दिन भी सूर्य-ग्रहण था। पूर्ण होने के बाद श्रद्धालु दान देने निकले। कुछ मिलने की आस में पाटलिपुत्र के सबसे व्यस्त चौराहे पर एक भिखारी भिक्षा के लिए बैठा था। नगर के एक प्रसिद्ध सेठ उधर से गुजरे। भिक्षुक ने बड़ी आशा से उनके सामने अपने हाथ पसारे। संयोग ऐसा हुआ कि दान देते-देते सेठ जी के पास उसे देने के लिए कुछ भी नहीं बचा था। सेठ धर्म-संकट में पड़ गए। उन्होंने भिखारी के हाथ पर अपना हाथ रख कर कहा- भाई, मुझे बड़ा दुख है कि इस समय मेरे पास तुम्हें देने के लिए कुछ भी नहीं है। हां, कल जब मैं आऊंगा, तब निश्चित रूप से तुम्हारे लिए कुछ न कुछ लेकर अवश्य आऊंगा।
इतना सुन भिखारी की आंखों से आंसू बह निकले। वहाँ खड़े लोगों ने समझा कि भिक्षा न मिलने के दुख से भिखारी दुखी है। इसलिए सभी ने उसे भिक्षा देनी चाही। भिखारी बड़े विनम्र भाव से बोला – मुझे कुछ भी नहीं चाहिए। भीख में आज तक मुझे न जाने कितने लोगों ने धन दिया, खाने को दिया। पर हर किसी के भीतर अहं मिश्रित उपकार का भाव था। लेकिन आज सेठजी ने जो स्नेह दिया वह दुनिया न दे सकी। मुझे भाई कह कर पुकारा। मेरे हाथ पर हाथ रख कर मुझे संबल दिया।
भिक्षुक को भिक्षा चाहिए पर एक मनुष्य होने के नाते मनुष्योचित व्यवहार भी चाहिए। मधुर बोल भी चाहिए। विनम्र-भाव से ऐसे दान करना चाहिए जैसे उसके स्वीकार हो जाने से हम स्वयं कृतज्ञ हुए। अहंभाव से दिया गया दान दीनता और विषमता बढ़ाने वाला है। अकिंचन भावना से दिया गया दान प्रीति और सद्भाव बढ़ाता है।
दान वो नहीं कि अगर पेट भरा हैं और कुछ खाते-खाते, खाने के लिए बच गया। तो आपने बचा हुआ किसी को दे दिया और सोचा कि दान कर मैंने बहुत पुन्य का काम कर दिया। तो ये समझना बहुत जरुरी हैं कि वो दान नहीं होता, वो उपकार नहीं होता, वो सिर्फ अपने अहं का दान हैं। दान मधुर वचन के साथ देना हितकर है। दान की वस्तु में दाता की मन की मिठास तथा वाणी की मधुरता मिली होती है तभी दी गई दान की वस्तु प्रिय तथा मूल्यवान बनती है। यदि तिरस्कार से सुमेरु-प्रमाण स्वर्ण का दान भी किया गया तो वह उतना श्रेष्ठ नहीं जितना प्रेम-विनय और मृदुता से भेंट किया गया केवल एक रोटी का ग्रास। अभिमान से रहित-प्रेम और मैत्री भाव से किए दान से जब दान लेने वाले को आंतरिक शक्ति मिलती है तभी दान संपूर्ण एवं मूल्यवान बनता है। दान देकर दाता का नहीं बल्कि भ्राता का भाव मन में लाएं। जिससे गृहण करने वाले के हृदय में ग्लानि, कष्ट एवं हीनता का भाव उत्पन्न न हो। अपने मन में भी दान देने की भावना नहीं आनी चाहिए इससे हम प्रभु से फल-रूप में कुछ पाने के इच्छा रखने लगते हैं। दान देने के लिए न धनवान होने कि ज़रूरत है, न ही सामर्थ्यवान होने की। यह तो केवल भावनाओं पर आधारित है। जिंदगी भर दूसरों से दान मांगने वाले पुणे के सरकारी रिसेप्शन सेंटर में रहने वाले 75 भिखारियों ने नेत्रदान की इच्छा व्यक्त जताई है।
पेड़ किसी से नहीं पूछता कहो, कहाँ से आए ? वह तो बस दे देता छाया चाहे जो सुस्ताए।
खिलते समय न फूल सोचता कौन उसे पाएगा,उस की खुशबू अपनी साँसों में भर इतराएगा।
बादल से जब सहा न जाता अपने जल का संचय, बस वह बरस-बरस भर देता नदियाँ, नहर, जलाशय। जो स्वभाव से ही दाता हैं उन्हें न कोई भ्रम है, भेद-भाव करते हैं वे ही जिन की पूँजी कम है।–डॉ. बाल स्वरूप राही।