तप का नाम आते ही हम समझते हैं कि यह सामान्य जन से बहुत दूर की वस्तु है। यह केवल ऋषियों मुनियों द्वारा ही किया जा सकता है, किन्तु यदि हम तप को समझें और उसके भेद-प्रभेदों को समझें तो ज्ञात होगा कि कुछ तप तो श्रावक भी करते रहते हैं।
वासनाओं के संस्कारों को नष्ट करने के लिए इन्द्रिय विषयों तथा आरंभ परिग्रह से बचना तपधर्म है। तप से आत्मा की शुद्धि होती है और इस शुद्धि से ही सिद्धि की प्राप्ति होती है। जैन साधना पद्धति में तप का महत्वपूर्ण स्थान है। इच्छाओं के रहते तप असंभव है। आत्म स्वरूप में लीन होना ही तप है। पाँचों इन्द्रियों के विषयों को तथा चारों कषायों को रोककर शुभ ध्यान की प्राप्ति के लिये जो अपनी आत्मा का विचार करता है उसके नियम से तपधर्म होता है। संसार सागर से पार उतरने के लिए तप जहाज के समान है। कर्मक्षय व आत्महित के लिए तप आवश्यक है। हमारे लिए तप ही उपादेय है। ‘इच्छा निरोधस्तपः’ इच्छाओं का निरोध करना, इच्छाओं का त्याग करना वह तप कहलाता है। इच्छाओं का कुछ तो नियंत्रित करो, कुछ तो अपने आपको संतुलित करो। एक वस्तु नहीं खाएंगे। शुद्ध चीजों का प्रयोग करेंगे- ये भी तप है। पूजा-विधान करने के लिए श्रावक जो एक आसन से बैठ जाते हैं, सुबह आठ बजे से शाम को चार बजे तक- ये भी उसका तप है।
काय पायकर तप नहीं कीना, आगम पढ़ नहीं मिटी कषाय।
धर्म को पाय दान नहीं दीना, तो क्या काम कियो इत आय।।
बिना जनम मरण के कारण रतन अनमोल दिया गमाय।
ऐसा अवसर फिर कठिन है शास्त्र ज्ञान अरु नर पर्याय।।
काय पायकर तप नहीं कीना, शरीर पाकर भी तप नहीं किया। तो आपका शरीर ही व्यर्थ है। आगम पढ़कर नहीं बीति कषाय। ऐसे लोग बहुत सारे मिलेंगे जो शरीर के पोषण में लगे हैं। शरीर स्वस्थ रहे, साफ रहे, सुंदर दिखे इसके लिए भोजन का त्याग करते होंगे, रसों का त्याग करते होंगे लेकिन तपस्या के लिए नहीं करते।
जो ज्ञानी विषय कषायों का त्याग करता है, सबसे पहले तप के लिए विषय-कषाय का त्याग हो तभी तप का मंगलाचरण होता है। विषय-कषाय के परिणामों को छोड़ करके ध्यान सिद्धी के लिए जो आत्म-तत्व की भावना करता है उसको उत्तम तप होता है। जहां कषायों का त्याग किया जाए, विषय वासनाओं का त्याग किया जाए फिर भोजन पानी का त्याग किया जाए, वह उपवास कहलाता है। विनय, वैयावृत्ति, प्रायश्चित्त आदि भी तप हैं। प्रायश्चित्त जो दिया है उस प्रायश्चित्त का पालन करना भी तप है। शांति से प्रायश्चित्त करें तो वह भी तपस्या ही हो रही है। ‘स्वाध्यायः परमं तपः’। स्वाध्याय ही परम तप है।
कोटि जन्म तप तपैं, ज्ञान बिन कर्म झरैं जे।
ज्ञानी के छिन मांहि त्रिगुप्ति तैं सहज टरैं ते।।
जो करोड़ों जन्म से तप करके भी कर्म नहीं झरते, वे ज्ञानी के त्रिगुप्ति तैं सहज टरैं ते। ज्ञानी तो तीन गुप्तिवाला है, उनके वे कर्म सहज ही नष्ट हो जाते हैं।
त्यागी-तपस्वियों के साथ-साथ ग्रहस्थ श्रावक भी अनशन, एकाशन, किसी रस का त्याग, प्रायश्चित्तग्रहण, वैय्यावृत्ति, स्वाध्याय आदि करते हैं तो वह उनका तप है।
-डॉ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’,
22/2, रामगंज, जिंसी, इन्दौर 9826091247