सम्प्रदायवाद,जातिवाद से दूर सभी संत,पंथ को स्वीकार्य धर्म के दशलक्षण-डॉ निर्मल जैन (से.नि.) जज

धार्मिक जीवन व्यक्ति का आंतरिक जीवन है। धर्म से उसका अंत:करण निर्मल होता है। अंतःकरण की निर्मलता का मुख्य हेतु है –मैत्री। यह मैत्री भावना प्रतिदिन अनुकरणीय है। किसी अपरिहार्य स्थिति में तुरंत ही ऐसा न कर सकें, तब जैन विचारधारा का यह दशलक्षण धर्म पर्व/पर्युषण पर्व समस्त कुटिलताओं को धोने हेतु अवसर देता है। श्वेतांबर जैन भाद्रपद कृष्ण द्वादशी से भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी तक आठ दिन एवं दिगंबर जैन भाद्रपद शुक्ल पंचमी से भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी तक दस दिन यह पर्व मनाते हैं। वर्षा काल में चार्तुमास का समय होने से साधुओं का आवागमन स्थगित रहता है। अतः उनका सतत सानिध्य एक ही स्थान पर मिल जाता है। इन दिनों वाणिज्यिक गतिविधियां भी शिथिल हो जाती हैं। ऊर्जा का क्षय कम हो जाता है। पेट की अिग्न भी मंद हो जाने से पाचन शक्ति प्रभावित होती है। अतएव इस काल में उपवास तथा अन्य तपश्चर्या तुलनात्मक रूप से सरलता से संभव है।
इन दिनों साधक प्रतिदिन धर्म के दश धर्मों, उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, उ शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन, एवं ब्रह्मचर्य में से एक अंग को आत्मसात करने का प्रयास करते हैं। सारे विकारों के जनक क्रोध को क्षमा ही शांत करती है। पांच इंद्रियों स्पर्श, रस, गंध, चक्षु, कर्ण पर अंकुश के साथ पृथ्वी, जल, वायु, वनस्पति आदि के जीवों की रक्षा करने का संकल्प संयम धर्म है। आत्मोन्नति में बाधक अहंकार का मर्दन मार्दव धर्म करता है। शौच तथा आर्जव हमारे विचारों को लोभ-रहित तथा सकारात्मक बनाते हैं। अहिंसा के पक्षधर त्याग और आकिंचन धर्म हमें सिर्फ जरूरी चीजों के संग्रह का संदेश देकर वर्तमान की आर्थिक विषमताओं एवं उनके कारण उपजे आतंक, हिंसा का समाधान प्रस्तुत करते हैं। स्वास्थ्य एवं नारी के प्रति सम्मान और सुरक्षा के प्रति आश्वासन है ब्रह्मचर्य धर्म।
किसी न किसी रूप में सभी विचारधाराओं को स्वीकार्य धर्म के यह दश लक्षण ऐसे हैं जो सम्प्रदायवाद, जातिवाद से कोसों दूर हैं और आत्म-कल्याण चाहने वाले सभी व्यक्तियों के लिए ग्राह्य हैं। यही इस पर्व की सार्वभौमिकता का आधार है। इन धर्मों को जीवन में उतारने से मानव का वो स्वरूप सामने आता है जिसमें वह वो समस्त कुरीतियों, विकृतियों को तिरोहित कर विश्वबंधुत्व की भावना से ओतप्रोत हो जाता है। इसीलिए यह पर्व सब का है और सिर्फ दस दिन का ही नहीं सर्वकालिक है।
आज की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि खुद को धार्मिक कहने वाला सबसे ज्यादा धर्म से दूर है। ईमानदार कहाने वाला सबसे ज्यादा ईमान का सौदा करता है, कानून बनाने वाले सबसे ज्यादा कानून का गला घोंटते हैं। महान और आदर्श दिखने वाले दूसरों को छल से मारते हैं। जो भी भगवान के प्रतिनिधि बन कर मुक्ति के फल का प्रलोभन देते हैं, वे मायावी लोग धर्म के व्यापारी होते हैं। जब हम ऐसे लोगों के आगे सर झुकाते हैं तो वे हमारी ही विनम्रता से और अधिक ताकतवर बन कर धर्म को अपने निहितार्थ संशोधित कर धर्म का मूल स्वरुप ही बदल देते हैं। इसलिए जरूरत इस बात की है कि हम अपने जीवन को संवारने में औरों के मोहताज न बनें। हमारा या किसी का भी अच्छा या बुरा होना भाग्य, परिस्थिति या कोई दूसरे व्यक्ति के हाथों में नहीं होता। यह सब कुछ घटित होता है अपने शुभ-अशुभ भावों से,कर्मों से। हम, आप सभी जैसा सोचते हैं वैसा ही बन जाते हैं। मैं क्या होना चाहता हूं, इसका जिम्मेदार मैं स्वयं हूँ, मेरा आचरण है। इसमें किसी आशीर्वाद या चमत्कार का कोई दखल नहीं। चर्चा नहीं चर्या को प्रधानता दे, कर्मकांड, आडंबर, प्रदर्शन से दूर आत्मा को परम आत्मा में समाहित करने वाली साधना की यथार्थता का पथ प्रशस्त करने वाला पर्वों का पर्व दशलक्षण धर्म पर्व।