*गुरुणामगुरु आचार्य श्री महावीरकीर्ति जी महायतिराज के आदेश*
*जिनके वरदानदायी हस्तकमलो से युगश्रेष्ठ योग्यतम महानतम सन्त बना पट्टाचार्य*
*श्रेष्ठ संघ हेतु आगमानुसार पंचाधारो की स्थापना*
3 जनवरी 1972 अर्थात माघ कृष्णा 3 विक्रम तिथि नुसार आज का ही दिन 46 वर्ष पूर्व *परम्पराजनक ज्येष्ठाचार्य श्री आदिसागर जी अंकलिकर स्वामी के पट्टाचार्य 20वी सदी के ज्ञान-ध्यान-तप में श्रेष्ठतम अतिशय आचार्य गुरुणामगुरु श्री महावीरकीर्ति जी ऋषिराज* ससँग गिरनार यात्रा से भयंकर शीतलहर में भी कठोर साधना के साथ सम्मेदशिखर जी हेतु विहाररत थे। सँग मेहसाणा गुजरात विद्यमान हो चुका था। गुरुणामगुरु आचार्य श्री महावीरकीर्ति जी भगवन्त का शरीर काफी अस्वस्थ हो चला था।उन्हें शरीर को छोड़ने का पूर्ण अहसाह हो चुका था। अतः उन्होंने सँगस्थ सभी साधुओं को निकट बुलाकर कहा-देखो अब मेरे जीवन का कोई ठिकाना नही है,मृत्यु निकट जान पड़ती है। मैं शताब्दियों में पहली बार आज संघ की व्यवस्था हेतु पंच आधारो की स्थापना करता हूँ। *अपना आचार्य पद मुनि सन्मति सागर को देता हूं _ _*
गुरु मुख से ऐसे वचन सुनकर *मुनि सन्मति सागर* बिफर पड़े,बोले-गुरदेव अभी ऐसा क्या हो गया जो आप पद छोड़ रहे हो।, और यदि आपको पद छोड़ना ही है तो किसी योग्य विद्वान-तपस्वी सन्त को यह पद प्रदान करे,मै इस योग्य कहा हूँ।
गुरुणामगुरु बोले- सन्मति ! तुम जैसा योग्य शिष्य,साधक,तपस्वी,अनुशासक-विद्वान कही ओर कोई दूसरा है…मुझे तो नजर नही आता…..और फिर ये अंतिम गुरु दक्षिणा है … क्या नही दोगे।
मुनि श्री सन्मति सागर जी के चेहरे पर थोड़ा राग छलक आया… गरुवर कैसी बात करते हो,….अंतिम गुरु दक्षिणा क्यो…..? और फिर गुरु दक्षिणा के लिए तो मेरा तन-मन और जीवन सबकुछ आपको समर्पित है।हम सब आपकी शरण मे रहने को लालायित है गुरुदेव ।
गुरुणामगुरु बोले-सन्मति! तुम विद्वान हो,एक क्षपक के सामने कैसी क्रिया,चर्या व बातचीत होनी चाहिए ये सब तुम्हे ज्ञात है… *अतः आज में आदेशपूर्वक मुनि सन्मति सागर को अपने गुरु श्री आदिसागर जी अंकलिकर स्वामी के पद पर प्रतिष्ठित करता हुँ।*
संघ के सभी साधुओ,विद्वानों व श्रावको ने एक स्वर से समर्थन किया।फिर *गुरुणामगुरु आचार्य श्री महावीरकीर्ति जी स्वामी ने आगमानुसार उपाध्याय पद भी मुनि सन्मति सागर जी को दिया।*
*साथ ही मुनि श्री कुंथुसागर जी को गणधर,मुनि श्री सम्भवसागर जी को स्थिवर,मुनि श्री नेमिसागर जी को प्रवर्तक व विलुप्त हो चुकी परम्परा में आर्यिका श्री विजयमती माताजी को सर्वप्रथम गणिनी पद प्रदान किया।*
पंचाधारो की व्याख्या करते हुए गुरुणामगुरु ने कहा-ऐसे संघ में कभी नही रहना जहा आचार्य,उपाध्याय,स्थिवर,प्रवर्तक व गणधर आदि पंच आधार न हो।
शिष्यों का अनुग्रह करने में कुशल होना आचार्य का कार्य है,धर्मोपदेश देना उपाध्याय का कार्य है,संघ का प्रवर्तन करना-मार्ग आदि व्यवस्थाओं पर ध्यान देना प्रवर्तक का कार्य है,मर्यादा का उपदेश सँगस्थ साधुओ को देना स्थिवर के लक्षण है व संघ का रक्षण करना गणधर का लक्षणी है।संघ में आर्यिकाओं की व्यवस्था के लिए गणिनी का होना अनिवार्य है।आप सभी परस्पर पूरक रहकर धर्म की प्रभावना करना, अब में निश्चिंत हूँ। आप लोग हमेशा आगमानुसार चर्या करना,राग-द्वेष के प्रपंच में न पड़कर आत्मराधना में लीन रहना।हमारे बाद ऐसा कोई कार्य नही करना जिससे परम्परा को कलंकित होना पड़े। इस तरह के आदेश उपदेश देकर गुरुणामगुरु आचार्य श्री महावीरकीर्ति जी भगवन्त समाधि सल्लेखना की साधना हेतु मौन हो गए।
*🕉श्री आदि -कीर्ति-विमल-सन्मति-सम्भव-कुन्थु-नेमी-सुनील गुरुभ्यो नमः*
*👏प्रथम गणिनी आर्यिका श्री विजयमती माताजी को वन्दन👏*
*✒लेखक-गुरुचरणसेवक शाह मधोक जैन चितरी✒,प्रेषणकर्ता जुगल मकनावत पारसोला*
*🙏नमनकर्ता-श्री आदिसागर अंकलिकर जागृति मंच,श्री सुनिलसागर युवा संघ*