{लेख अधूरा है}👉डा.निर्मल जैन”जज”

लेख अधूरा है!
👉डॉ. निर्मल जैन (जज)
एक बहुरूपिया राजा भोज के दरबार में पहुँचा और उसने पांच मुद्राओं की दक्षिणा मांगी। भोज ने कहा, ‘कलाकार को कला के प्रदर्शन पर पुरस्कार दिया जा सकता है लेकिन दक्षिणा (दान) नहीं।‘बहुरूपिये ने चार दिन का समय मांगा। अगले दिन राजधानी के बाहर एक पहाड़ी पर एक जटाधारी तपस्वी का उदय हुआ। उस समाधिस्थ साधू को देख चरवाहों का समूह इकट्ठा हो गया।
सब साधू से तरह-तरह के सवाल पूछते रहे, कौन हो, कहाँ से आए हो? लेकिन तपस्वी ने न तो आंखें खोलीं और न अपने शरीर को रंचमात्र हिलाया। चरवाहों से उसअद्भुत तपस्वी का वर्णन सुन पहाड़ी पर लोगों की भीड़ जमा हो गयी। तपस्वी के आगे भेंट-स्वरूप भोजन, फल, उपहारों का अंबार लग गया। लेकिन तपस्वी निश्चल, स्थिर, मौन। ऐसे कठोर साधना के बारे में जान कर राजा भोज के प्रधानमंत्री दर्शनार्थ पहुंचे।नमस्कार कर तपस्वी को रत्नों की थैली अर्पित की। आशीर्वाद देने की प्रार्थना की। मगर तपस्वी बाबा पर कोई असर नहीं पड़ा। प्रधान मंत्री से ऐसे निस्प्रही संत की यशोगाथा सुन राजा भोज खुद तपस्वी के दर्शनों को पहुंचे। प्रणाम किया और उनके चरणों में अशर्फियां, फल-फूलों के साथ चढ़ाकर आशीर्वाद मांगते रह गए। लेकिन तपस्वी के मौन के समक्ष उन्हें भी निराश होकर वापस लौटना पड़ा।
चार दिन बीत जाने पर फिर से उसी बहुरूपिये ने दरबार में पाँच मुद्राएं मांगते हुए कहा कि वो तपस्वी का स्वांग उसी ने अपनी कला के प्रदर्शन हेतु किया था। वो अपने प्रदर्शन में सफल रहा। अब उसे पुरस्कार के रूप में पांच मुद्राएं दी जाएं। राजा भोज ने कहा- मूर्ख! कितने ही लोगों के साथ प्रधान मंत्री ने और मैंने स्वयं जाकर तेरे चरणों में वहुमूल्य उपहारों के साथ हजारों अशर्फियां रखकर स्वीकार करने की प्रार्थना की, तब तो तूने आंख तक नहीं खोली। अब मात्र पांच मुद्राएं मांग रहा है।
बहुरूपिया बोला, ‘महाराज ! उस समय मेरे लिए सारे वैभव तुच्छ थे। मुझे तपस्वी-वेश की लाज रखनी थी। आज पेट की आग के लिए कला का प्रदर्शन है। आपसे आपके वायदे के अनुसार अपनी कला का पुरस्कार चाहता हूँ।
राजा भोज सिंहासन से उठे और उसे नमस्कार करते हुये गले लगाकर बोले -उस दिन तुम्हारे साधू वेश को नमस्कार किया था आज तुम्हारे आदर्शों, तुम्हारी धर्म के प्रति निष्ठा के प्रति नतमस्तक हूँ।
वो बहुरूपिया न तो कोई साधक था, न ही उसने कोई संकल्प लिया था। न अपने को किसी धर्मपुरुष की संज्ञा देता था। उसने राजा से पारिश्रमिक लेने को अपनी कला-प्रदर्शन के लिए साधू वेश धारण किया था। लेकिन अल्प-काल के ही सही उसके छद्म साधू वेश ने उसके भीतर में मोह-ममत्व से दूर वास्तविक साधू, त्यागी के रूप में आमूल-चूल परिवर्तित कर दिया। नकली होते हुए भी उसने अपने साधू वेश की मर्यादा को खंडित नहीं होने दिया। लेकिन …………..
इसके बाद लेखनी रुक कर बोली -बस आगे सुधि पाठकों पर छोड़ दो। सभी विवेकी और ज्ञानी हैं। जो हो रहा है, सब कुछ देख रहे हैं, सुन रहे हैं। वे उसको अपने-आप विचारों में लाकर लेख पूरा कर देंगे। 👉डॉ. निर्मल जैन
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