आचार्य श्री ज्ञानभूषण जी महाराज ने प्रदान की👉”जैनेश्वरी क्षुल्लिका दीक्षाऐं” और वात्सल्य दिवस पर सैंकड़ों को किया दीक्षित







आज पंचमकाल अर्थात कलयुग में व्यक्ति की सहनन शक्ति यानी झेलने की शक्ति कम होने के बावजूद भी संसार के प्रत्येक व्यक्ति को👉”थोक में नहीं तो फुटकर में ही सही” लेकिन दीक्षा तो लेनी चाहिए उसे शिक्षित के साथ दीक्षित भी जरूर होना चाहिए|
आचार्य श्री व्यक्तियों को जाग्रत करते हुए आगे कहते हैं कि पंचमकाल अपनी तीव्र गति से चल रहा है, तो उसे चलने दें यह प्राकृतिक व्यवस्था है लेकिन व्यक्ति को आज भी मोक्षमार्ग की सर्वोपरि विशुद्ध भावना जैसी उत्कृष्ट साधना की दीक्षा अपने निकटतम गुरू से अवश्य लेनी चाहिए|
आचार्य श्री कहते हैं कि इस “विशुद्ध भावना” के बिना साधु-संत बनना, साधु-संन्यासियों की वेशभूषा धारण करना/कराना, विविध प्रकार के व्रत-उपवास ,पूजा-पाठ, विधि-विधान करना/कराने के अतिरिक्त जैनेश्वरी दीक्षा हो या वैष्णवी दीक्षा हो सबका लेना/देना निरर्थक हैं|
आचार्य श्री ने आगे अपने सम्बोधन में कहा है कि आज के दीक्षा दिवस के इस पावन दिवस पर👉मैं “विशुद्ध भावना दीक्षा” के तहत देश के सैकड़ों व्यक्तियों को दीक्षित करना चाहता हूँ|भगवंतों द्वारा अपनायी गई इस विशुद्ध भावना दीक्षा को लेने वाला दीक्षार्थी चाहे किसी भी समुदाय का हो कोई फर्क नहीं पड़ता है|क्योंकि👇
👉”आज व्यक्ति जातिवाद के विवादों में अधिक घिरा है लेकिन किसी बीमार व्यक्ति को खून की जरूरत पड़ जाये तो उसका “ब्लड ग्रुप” तो पूछा जाता क्योंकि यह एक अलग डॉक्टरी व्यवस्था और पुदगलहित की बात है लेकिन जातिवाद के पंड़ित खून देने वाले किसी व्यक्ति की व्यक्तिगत जाति नहीं पूछते हैं और जरूरत पड़ने पर किसी एक विशेष जाति के व्यक्ति का खून दूसरी जाति के व्यक्ति को निर्विरोध जीवरक्षार्थ जनहित में चढ़ा दिया जाता है इसी जनहितकारी खून की भाँति यह “विशुद्ध भावना दीक्षा” भी सर्वजन हितकारी है|”
मैं चाहता हूँ कि “मोदीनगर” के इस दीक्षा कार्यक्रम प्राँगण में जितने भी त्यागीव्रती और श्रावक/श्राविका उपस्थित हैं और मीडिया के माध्यम से जहाँ तक मेरी बात जाए वह सब जैनेश्वरी क्षुल्लक-क्षुल्लिका या मुनि दीक्षा न ले सकें, अधिकाधिक व्रत-उपवास न कर सकें, अधिकाधिक पूजा-पाठ -विधान न कर सकें, अधिकाधिक परिग्रह न छोड़ सकें तो कोई चिंता की बात नहीं है लेकिन अधिकाधिक चिंता की नम्बर 1 बात यह है कि 👉हम अपने और दूसरों के माता-पिता, नाते-रिश्ते, अडौसी-पड़ौसियों के प्रति आदर-सत्कार- सम्मान की भावना जरूर रखें साथ ही साथ दुनिया भर के जीव-जन्तु, पेड़-पौधों और पर्यावरण के प्रति भी विवेकवान बनें, किसी के प्रति, ईर्ष्या भाव, कषाय भाव आदि जैसी द्वेष भावना अर्थात नफ़रत जैसी भावना न रखें| हमें पाप से घृणा करनी है पापी से घृणा नहीं करनी है|
आगे आचार्य भगवन कहते हैं कि👉 नम्बर 2 बात यह है कि अगर आपके नगर -शहर- गाँव- कस्बें में किसी भी संघ से कोई भी साधु-संत आये उसके प्रति विवेकवान बनें, उसे जाँचे-परखे लेकिन बिना तथ्य के 👉आपसी सामाजिक गुटबाजी के कारण उसका अनादर न करें, बहिष्कार न करें अर्थात सभी साधु- संतों के साथ सद्व्यवहार करें|
👉नम्बर 3 आप संसार के किसी भी जीवमात्र से प्रतिशोध- बदले की भावना नहीं रखेंगे तो फिर👉देखिए इस अद्भुत “विशुद्ध भावना दीक्षा” का चमत्कार जो हमारे भगवंतों के जीवनकाल में घटित हुआ वही चमत्कार आपके जीवन के अन्दर भी घटित होना शुरू हो जायेगा और आप भी सिद्धशिला के पक्के उम्मीदवार बन सकते हैं ! यह विशुद्ध भावना इतनी तीव्र चमत्कारी है कि इसे तिर्यंचों (पशुओं) ने भी अपने जीवन काल में अपनाया तो तीर्थंकर बन गये|
👉ज्ञानियों आपने पूजा-पाठ, व्रत-उपवास और शास्त्र भी बहुत पढ़े होंगे, हो सकता है कि मुझसे भी ज्यादा शास्त्र-ग्रंथ आपने पढ़े होंगे लेकिन आपने कभी तीर्थंकरों से लेकर अनेकानेक भगवंतों के सूक्ष्म रहस्य को समझा कि उन्होंने अपने पुदगल(जो गल भी रहा है और पल भी रहा है अर्थात शरीर) में किस प्रकार की त्याग-तपस्या के बल पर क्रूर से क्रूर जीव की क्रूर प्रवृत्ति को भी अपने दिल-दिमाग में निरन्तर बहने वाली सद्भावना जैसी प्रवाह में समाहित कर लिया था|
👉बन्धुओं वह और कोई अफ़लातूनी साधना नहीं थी बल्कि ध्यानयोग और दिनचर्या में निरन्तर बहने वाली यही “विशुद्ध भावना” की साधना थी जिसके बल पर उनके “आभामण्ड़ल” में किसी जीवमात्र के प्रवेश करते ही वह जीव शांतचित्त हो जाता था,रागद्वेष भूल जाता था| एक-दूसरे के विरोधी से महाविरोधी और हिंसक से महाहिंसक जीव होते हुए भी वह शाँति धारण करके एक दूसरे के साथ मिलजुल कर भगवंतों के समीप बैठते थे| यह है इस अद्भुत”विशुद्ध भावना दीक्षा”का सुपरिणाम जिसको हमारे पूज्य भगवंतों ने आजीवन अपनाया और मोक्षलक्ष्मी को प्राप्त किया था|
👉आज के दौर में यह अद्भुत साधना की दीक्षा घर-घर से विलुप्त होती जा रही है जिसके कारण देश,समाज और परिवारों में विघटन के साथ-साथ कायक्लेश का वातावरण बढ़ता जा रहा है|परिवार की चर्चा शुरू हुई है तो आप भगवान श्री पार्श्वनाथ और कमठ के जीवनकाल में झाँकना मत भूलिए| सर्वोच्च पद के धारी तीर्थंकर भगवंतों के कुछ परिवार में भी भावनाओं की चर्चा पढ़ने/सुनने को मिलती है| कमठ के बैरभाव- द्वेषभाव ने उसे कहाँ-कहाँ कुगति में घुमाया लेकिन भगवान श्री पार्श्वनाथ का सद्भाव और उनकी विशुद्ध भावनाऐं उन्हें सदा-सदा के लिए सुगति की ओर ले गई और इसी सदगति के कारण ही आज वह हमारे पूज्य आराध्य हैं इष्ट हैं और सदा-सदा के लिए पूज्य रहेंगे |
लेकिन👇👇
ज्ञानियों यहाँ पर भी अपनी सूक्ष्मदृष्टि दौड़ा लेना कि जब तक एक पक्ष दूसरे पक्ष को हृदय से क्षमा नहीं कर देता, माफ नहीं कर देता तब तक संसार वृद्धि के अंतर्गत संसार में आवागमन बना ही रहेगा है चाहे तुम अपने माथे पर कितने भी लम्बे-लम्बे तिलक लगा लेना| यहाँ पर भावनाओं का निराला खेल यह दर्शाता है कि एक पक्ष सभी के लिए विशुद्ध भावना अर्थात सकारात्मक सोच ऱखता है तो वह सकारात्मक सोच के कारण सुगति का पात्र तो निश्चित बनेगा लेकिन दूसरी तरफ हमारे प्रति दूसरे पक्ष की दूषित भावना या द्वेषभाव अर्थात नकारात्मक सोच (ऊर्जा) नकारात्मक ऊर्जाधारी को👉 कुगति का पात्र तो बनाएगी ही साथ ही साथ उस दूसरे पक्षधारी की हमारे प्रति द्वेषभावना- नकारात्मक ऊर्जा हमें भी संसार भ्रमण से मुक्त नहीं होने देगी| यहाँ पर यह कहावत कहना उचित होगा कि मैं कमजोर हूँ तो क्या हुआ,परन्तु 👉”हम तो डूबेंगे सनम लेकिन तुम्हें भी ले डूबेंगे”
👉सरल भाषा में भगवान श्री पार्श्वनाथ और कमठ के प्रकरण को कहें तो कमठ जैसे शक्तिशाली कुदेव के क्षमाभाव वाले अभाव और द्वेषभाव-बैरभाव जैसी तीव्रता के कारण भगवान श्री पार्श्वनाथ को भी मोक्ष प्राप्ति में काफी विघ्नों, उपद्रवों, उपसर्गों को झेलना पड़ा था लेकिन कमठ द्वारा किये गये उपसर्ग में जब वह स्वयं पराजित हो गया, उसके बाद उसने भी👉 विशुद्ध भावना प्रकट करते हुए कहा कि👉”हे सर्वज्ञ प्रभु मैं सब जीवों को क्षमा करता हूँ और सब जीव मुझे क्षमा करें” तब तीर्थंकर जैसे सर्वोच्च भगवंत का सुगमता के साथ👉संसार से “सर्वोच्च मुक्ति” का मार्ग प्रशस्त हुआ था| बन्धुओं जरा विचार करें कि सर्वोच्च भगवतों के साथ मुक्ति जैसे प्रकरण पर उपरोक्त जैसा घटित हो सकता है तो साधारण से जीव की क्या औकात है ! इसीलिए मैं हमेशा कहता हूँ कि आपसे कितना भी कमजोर या तुच्छ प्राणी-जीव क्यों ना हो लेकिन उस जीव की आपके प्रति भी बैरभाव की गाँठ, द्वेषभाव की गाँठ नहीं होनी चाहिए तभी👉व्यक्ति सदगति और संसार से मुक्ति का पात्र बन सकेगा |
👉जिनआगम में प्राकृतिक विधि-विधान के इतने सूक्ष्म और रहस्यमयी सूत्र निहित हैं जिनके निष्कर्षों पर पहुँचने के वास्ते “विशुद्ध भावनाओं” का अनुसरण करना अत्यन्त आवश्यक है|
जैनेश्वरी क्षुल्लिका दीक्षा के कार्यक्रम प्राँगण में आचार्य श्री के मुखारबिंदु से सूक्ष्म रूप में उपरोक्त रहस्यमयी “विशुद्ध भावना” जैसी सर्वजन कल्याणकारी दीक्षा की सूक्ष्मता जब लोगों को पता चली तो आचार्य श्री के समक्ष सैंकडों लोगों ने इस “विशुद्ध भावना दीक्षा” का आजीवन अनुसरण करने का संकल्प किया है| विशुद्ध भावना दीक्षा से दीक्षित व्यक्तियों का कहना है कि👉आज से हम किसी भी जीवमात्र ,प्रकृति और किसी भी साधु-संतो के प्रति दूषित भावना नहीं रखेंगे और किसी साधु- संत का सोशल मीडिया आदि के माध्यम से दुष्प्रचार भी नहीं करेंगे|
कार्यक्रम के अन्तिम दौर में आचार्य भगवन ने कार्यक्रम निर्देशिका वाणी प्रखर👉 क्षुल्लिका 105 श्री ज्ञानगंगा माता जी की काफी प्रशंसा करते हुए कहा कि माता जी के अथक प्रयास से आज यह कार्यक्रम सफल हुआ है लेकिन क्षुल्लिका माता जी ने गुरू शब्दों को उनके पीछे आचार्य भगवन की ही गुरू ऊर्जा बताते हुए आचार्य भगवन से आशीर्वाद प्राप्त किया| जानकारी के लिए बता दें कि-👉वाणी प्रखर क्षुल्लिका 105 श्री ज्ञानगंगा माता जी आचार्य भगवन की प्रथम क्षुल्लिका शिष्या हैं इनकी क्षुल्लिका दीक्षा, ऐतिहासिक रूप में लगभग 15 हजार के जनसमूह के समक्ष काधंला, जिला प्रबुद्धनगर-शामली(उत्तर प्रदेश) में 29 अप्रैल 2012 को आचार्य भगवन श्री ज्ञानभूषण जी महाराज के करकमलों द्वारा हुई थी|



👉बन्धुओं आचार्य श्री से जब मैने इस अद्भुत और रहस्यमयी साधना के विषय में समझा तो जनहितार्थ मैने इसे विस्तार देने का प्रयास किया है|
यहाँ ध्यान देने योग्य बात यह है कि दुनिया में हमसे कमजोर से कमजोर, तुच्छ से तुच्छ एक इन्द्रिय जीव हो या पंचइन्द्रिय जीव हो उसके दिल-दिमाग में हमारे प्रति प्रतिशोध या हमारे प्रति उसके दु:खद भाव नहीं होने चाहिए तभी हमारी सदगति सम्भव है और इस सदगति की प्राप्ति के लिए👉गृहस्थावस्था हो साधुवस्था हो प्रत्येक व्यक्ति के लिए सर्वप्रथम”विशुद्ध भावना की
दीक्षा”अंगीकार करना अत्यन्त आवश्यक है| कहने का तात्पर्य है कुगति से बचना है तो कुपात्र नहीं सुपात्र बनिऐ और अपने भगवंतों के पदचिन्हों पर चलिऐ|

👉 प्रेषक-“गुरू चरण सेवक” पारसमणि जैन चीफ एडिटर “पारस पुँज” नई दिल्ली| मोबाइल
9718544977
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