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Home›धर्म-कर्म›आखिर क्यों होती है दीक्षा और क्या होती है दीक्षा ,जानिए दीक्षा की हकीकत -: श्री ज्ञानगंगा माता जी

आखिर क्यों होती है दीक्षा और क्या होती है दीक्षा ,जानिए दीक्षा की हकीकत -: श्री ज्ञानगंगा माता जी

By पी.एम. जैन
March 11, 2020
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21 वीं सदी के वात्सल्यमूर्ति आचार्य 108 श्री ज्ञानभूषण जी महाराज”रत्नाकर” की प्रथम क्षुल्लिका शिष्या श्री ज्ञान गंगा माता जी ने जनहित में दीक्षा के सूक्ष्म रहस्यों से पर्दा उठाते हुए “पारस पुँज” के चीफ एडिटर पी.एम.जैन से दीक्षा के संदर्भ में चर्चा करते हुए बताया कि👉एक सक्षम व्यक्तित्व के द्वारा अपने शिष्य के अवचेतन में व्याप्त ब्रह्माण्ड की शक्तियों के बीजों को खोजकर उनको अंकुरित कर उसका पतन होने से रोकने के लिए अपनी प्राणऊर्जा के अंश से उसको संरक्षित कर शिष्य द्वारा साधना कर उस बीज को पूर्ण परिपक्व बनाकर उससे अभीष्ट लाभ प्राप्त करने की विधि का ज्ञान देने, अथवा अपने अनुभवों, ज्ञान व अपनी शक्तियों का अणु रूप में अन्य सुपात्र शिष्यों के साथ विधिवत व सुरक्षित बांटना या हस्तांतरित करने की प्रक्रिया ही दीक्षा लेना या दीक्षा देना कहलाती है!जनमानस का शरीर इस “सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड” की प्रतिकृति है, जो कुछ भी इस ब्रह्माण्ड में है वही सब जीव के अवचेतन शरीर में अत्यन्त “सूक्ष्म अणु” रूपी बीज के रूप में व्याप्त है|

👉गुरु जब दीक्षा देता है तो अपने शिष्य के अवचेतन में स्थित उसकी अभीष्ट साधना से सम्बन्धित शक्ति के “अणु”रूपी बीज को खोजकर उसको जागृत कर देता है, अर्थात👉वह दीक्षा प्रदाता गुरु अपने शिष्य के अवचेतन में स्थित उसकी अभीष्ट साधना से सम्बन्धित शक्ति के अणु रूपी बीज को खोजकर उस बीज को अंकुरित करके अपनी ऊर्जा के एक अंश को उस बीज की प्राणशक्ति के रूप में स्थापित कर देता है, ताकि उस अंकुरित बीज का पतन न हो सके और उसका शिष्य अपनी तप-साधना रूपी देखभाल व ऊर्वरकता से उस अंकुरित बीज को पौषित कर विशाल वृक्ष में परिवर्तित कर उसके फल को ग्रहण कर सके! एक शिष्य के लिए एक सक्षम गुरु का यही सबसे बड़ा महत्त्व, योगदान व समर्पण होता है कि वह इसी प्रकार अपने शिष्यों के लिए अपनी ऊर्जा के एक-एक अंश को उनकी साधनात्मक जीवन की प्राणशक्ति के रूप में बांटकर बिखर जाता है, और इस प्रकार बिखर कर भी एक ही बना रहता है|

जब कोई व्यक्ति अपने आत्मिक/ भौतिक उन्नति अथवा अन्य किसी प्रयोजन से किसी गहन सार्थक कर्म करने के उद्देश्य से उस विषय में किसी सक्षम मार्गदर्शन व ज्ञान देने वाले योग्य व्यक्तित्व को अपने हृदय में अपने आत्म पथप्रदर्शक गुरु में रूप में धारण कर उसके सम्मुख जाकर उससे अपने आत्मोत्थान हेतु निवेदन करता है , तब गुरु उसकी पात्रता का विश्लेषण कर अनेक अनुष्ठान संपन्न कराते हुए अपनी उर्जा को अपने शिष्य के साथ बांटने का मानसिक संकल्प लेते हुए गुरु उस साधक द्वारा विशेष पश्चाताप, यज्ञादि अनुष्ठान संपन्न कराकर आवश्यकता व दीक्षानुसार मन्त्रों द्वारा अनेक द्रव्यों से अभिसिंचन करते हुए अभिषिक्त कर उसकी देह, मन व आत्मा को ग्राह्य व निर्द्वंद बनाकर दीक्षा ग्रहण करने योग्य बनाते हैं !तदुपरांत देह, मन व आत्मा से निर्द्वंद हुआ साधक एक जल युक्त नारियल हाथ में लेकर अपने अहंकार को अपने गुरु के चरणों में विनम्रता पूर्वक समर्पित करते हुए दीक्षा प्राप्ति हेतु निवेदन करता है उस समय वह साधक प्रथम बार पूर्ण शिष्य के जैसा होता है, और यही वह मार्मिक क्षण होता है जब गुरु उस जीव को शिष्य के रूप में स्वीकार कर दीक्षा दान का प्रकरण प्रारंभ करते हैं!

👉इसके उपरान्त गुरु अपने भावी शिष्य को साथ लेकर दीक्षानुसार विभिन्न देवों के चक्र पूजन या देव पूजन व विशेष यज्ञादि अनुष्ठान संपन्न करते हैं, और नियमानुसार उपरोक्त संस्कारों से युक्त होकर ग्राह्य बन चुके शिष्य के मूल शरीर में अपनी तपस्चार्या की कुछ ऊर्जा प्रवाहित कर उस शिष्य के अंतःकरण में व्याप्त शक्ति को जागृत कर उसमें स्थित ब्रह्माण्ड की असंख्य शक्तियों के असंख्य बीजों में से अपने उस शिष्य की साधना की शक्ति से सम्बन्धित बीज खोजकर उस बीज को अंकुरित व क्रियाशील करते हुए अपनी ऊर्जा के एक अणु को उस बीज की प्राणशक्ति के रूप में स्थापित कर विधिवत दीक्षा प्रदान करते हैं, तथा उस साधना के लिए उस शक्ति का मन्त्र प्रदान कर प्रदत्त मन्त्र के मूल स्वरूप व मूल ध्वनि के उच्चारण तथा सम्पूर्ण साधना विधान को समझाते हैं, क्योंकि संगीत की भांति मन्त्र का सही उच्चारण ही अभीष्ट ऊर्जा शक्ति के रूप में फलीभूत होता है, इस समय पर शिष्य का अंतःकरण अनायास ही इस प्रकरण को बीज के रूप में स्वतः ही ग्रहण कर जाता है ! इसके उपरान्त 👉”शिष्य को चाहिए कि वह उसी क्षण से गुरु द्वारा प्रदत्त मन्त्र को जिव्हा तक लाए बिना गुरु के निर्देशानुसार हृदय, कण्ठ या अन्य चक्र पर जप आदि कर्म पर स्थिर हो जाए”👈, तथा कभी भूलकर भी उस मन्त्र का जिव्हा से उच्चारण ना करे, और ना ही कभी अपनी साधना को सार्वजनिक करे | गुरु प्रदत्त निर्देशों का दृढ़ता से पालन करे तो सफलता उस शिष्य का स्वयं आलिंगन करती है ! यही दीक्षा दान का मूल प्रकरण व सिद्धान्त है !

👉जिस प्रकार बीज भूमि से बाहर और डिम्ब गर्भ से बाहर फलीभूत नहीं हो सकता है, उसी प्रकार कोई भी मन्त्र या साधना परिपक्व हुए बिना सार्वजनिक होने पर निष्फल हो जाती हैं ! इसी भाँति दीक्षा लिए बिना की गई “उत्कृष्ट साधना” भी निष्फल ही होती है, यह पृथक विषय है कि बिना दीक्षा के दीर्घकाल तक मन्त्र जप व यज्ञादि करने से थोड़ी सी ऊर्जा अवश्य उत्पन्न होकर आंशिक अनुभूति मात्र करा देती है, अथवा संयोगवश कुछ सकारात्मक घटित हो सकता है, किन्तु यह साधना का परिणाम नहीं होता है, साधना का परिणाम तो दीक्षा के उपरान्त ही प्राप्त होता है|प्रस्तुति👉पी.एम.जैन”ज्योतिष विचारक”एवं चीफ एडिटर मो. 9718544977

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