हमारे बीच सत्य को लेकर नहीं प्रतिबिंबों के विवाद अधिक है👉डा.निर्मल जैन(से.नि.जज)
एक विवाद को सुलझाने के मध्य घटनास्थल पर एक व्यक्ति ने आक्रोशित हो पुलिस कप्तान की वर्दी पर थूक दिया। अपने वरिष्ठ अधिकारी के साथ हुई इस अभद्रता पर कप्तान के साथी पुलिस कर्मचारियों को बहुत गुस्सा आया। सभी उस व्यक्ति को पकड़ने के लिए आगे बढ़े। उनमे से एक ने तुरंत रिवाल्वर निकाल लिया और थूकने वाले पर गोली चलाने को उद्धत हो गया। तभी पुलिस कप्तान ने उसे रोका और रिवाल्वर को वापस रखने के लिए कहा। पुलिस कप्तान ने रुमाल निकाला और थूक पौंछ कर रुमाल को फेंक कर थूकने वाले से बात करने लगे। सभी पुलिसकर्मी और मौके पर उपस्थित लोग यह देखकर विस्मित हो गये। पुलिस कप्तान ने उन सबको समझाते हुए कहा –जो काम रुमाल से निपट सकता है उसके लिए रिवाल्वर निकालने की कोई आवश्यकता नहीं।
यह है सकारात्मक सोच। मैं शांत और प्रसन्न रहूंगा, अगर मैं ऐसा चाहता हूं, मेरी ऐसी सोच है तब उसका यही एकमात्र मार्ग सकारात्मक दृष्टिकोण है। शांति और प्रसन्नता पाने के साथ सफलता की बुनियाद भी यही सोच है। यही सार्थकता की नींव है, समृद्धि की कुंजी है, सुख का आधार है, स्वर्ग और आनंद का मार्ग है। इसी दृष्टिकोण को ठीक से न अपनाने के कारण व्यक्तिगत संबंधों में, परिवारों में दरारें पड़ जाती हैं,समाज के टुकड़े हो जाते हैं। सबसे बड़ा प्रतिकूल प्रभाव धर्म और पंथ में बिखराव और अलगाव के रूप में दिखता है।
किसी बगीचे में अगर कोई फर्नीचर बनाने वाला पहुंचेगा तो वह पेड़ की लकड़ी की क्वालिटी और मात्रा को देख कर सोचेगा इससे क्या-क्या बनाया जा सकता है। अपने अंतर्मन में शत्रुता के भाव लिए उस बगिया में पहुंचने वाला व्यक्ति कोई न कोई कांटा, सूखा पेड़-पत्ते ढूंढ ही लेगा। जबकि प्रेम की सौगात हृदय में भर कर रखने वाला व्यक्ति की द्रष्टि खिलते पुष्पों एवं नवस्फुटित पल्लवों को निहारेगी। उनकी सुवास और सौंदर्य का आनंद लेगा। यह दृष्टिकोण का अंतर ही तो है। जो हमें दुख में भी सुख की अनुभूति देता है।
धर्म हमारे सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक आंतरिक मूल्यों का विशाल महासागर है। अलग-अलग होते हुये भी सभी धर्म मूलतः एक हैं। जो भी अंतर है वह भाषा का है, कहने की शैली का है, बातों का नहीं। ‘पंथ‘ अर्थात मार्ग, रास्ता, सड़क, रोड, जो मंजिल तक पहुंचाता है। यहां मंजिल है -धर्म। अब तक की मुख्य और मनोवैज्ञानिक चुनौती यह रही है कि आदमी के अंदर धर्म के लक्षणों में से अधिक से अधिक कैसे स्थापित किया जाए? इन्हीं उपायों को गौतम बुद्ध,महावीर, गुरुनानक, ने अपनी-अपनी तरह से बताया। जिन्हे हमने पंथ का नाम दे दिया है।
इन दिनों सोच का नजरिया ही बदल गया है। हमारे बीच सत्य को लेकर नहीं प्रतिबिंबों के विवाद अधिक है। पांच कटोरों में पानी रखकर सूरज को देखा जाए तो उसके पांच प्रतिबिंब नजर आएंगे। लेकिन पांच प्रतिबिंब होने से सूरज कभी भी पांच हिस्सों में नहीं बंट सकता। दीयों में फर्क होने से ज्योति में कोई फर्क नहीं हुआ करता। जो लोग दीयों को लेकर अपने-अपने पंथ के दुराग्रह पाल रहे हैं उससे हम धर्म की ज्योति के वास्तविक मूल,वास्तविक सत्य और वास्तविक परिणामों से वंचित होते जा रहे हैं।
श्रेष्ठतम एवं सम्यक दृष्टिकोण यह है कि हमारे सामने पांच कटोरों में सूरज का प्रतिबिंब दिखाई देने पर भी, बीस दीपकों की प्रकाश ज्योति अलग से दिखाई देने पर भी हम इस बात पर विश्वास करें कि सूरज एक है,प्रकाश-ज्योति एक है। हम जाने कि बिंब और प्रतिबिंब में क्या भेद है। सूर्य, चंद्र को जानने के लिए कटोरे माध्यम तो हो सकते हैं। परंतु सूर्य या चंद्र कदापि नहीं बन सकते। पंथ कितने ही हों,मानवीय धर्म तो एक ही है और रहेगा।