रतलाम। जिन्होंने पिच्छि को हाथ में ग्रहण किया है, धारण किया है उन्होंने तीर्थंकर भगवान की धर्म ध्वजा को अपने हाथों में लिया है। जिस प्रकार से तीर्थंकर भगवान के समोसरण में रहने वालों को भूख-प्यास नहीं लगती है, समोसारण में दिन-रात का भेद नहीं होता वहां पर सभी को समान शरण मिलती है, उसी प्रकार जिनके हाथ में पिच्छिका है उनके चरणों में सभी को शरण मिलती है। दुख से दुखी हुए व्यक्ति को सुख की प्राप्ति होती है। पिच्छी की छाया में रहने वालों को कभी भूखा नहीं सोना पड़ता है। पिच्छि कल्पवृक्ष के समान है, जहां पर होती है वहां पर व्यक्ति दुखी कैसे हो सकता है।
ये उद्गार व्यक्त किये रतलाम दिगम्बर जैन मंदिर परिसर में पिछले रविवार को श्रमणचार्य श्री विमदसागर जी मुनिराज ससंघ के पिच्छि परिवर्तन समारोह के अवसर पर उन्होंने व्यक्त किये। आचार्यश्री ने आगे कहा कि कई आदमी रोटी के चक्कर लगाते हैं कि उन्हें रोटी मिल जाये और जिनके हाथ में पिच्छि होती है रोटी उनके चक्कर लगाती है। श्रावक सौभाग्य मानते हैं कि पिच्छिधारी मुनिराज को उन्हें आहार देने का अवसर मिला।
पिच्छि में 12 गुच्छक होते हैं, जिससे बारह भावना का चिंतन होता है, श्रावक के 12 व्रत का चिंतन होता है और 12 प्रकार के तप होते हैं। पिच्छि को देखकर विचार आता है कि हमें भी 12 व्रतों को पालना चाहिए। मुनिजन अपनी साधना को बढ़ाते हैं। मुनिराज विचार करते हैं कि मैंने यह संयम का उपकरण हाथ में लिया है और उस संयम का मुझे पालन करना है। संयम में कहीं कमी न आ जाए पिच्छि को देख कर एकाग्रता बनी रहती है। जैसे भजन की लाइन है, ‘तेरी प्रतिमा इतनी सुंदर तू कितना सुंदर होगा।’ उसी प्रकार जिनके हाथ में पिच्छिका है उनके लिए गुरुवर ने कहा कि ’तेरी पिच्छि इतनी सुंदर तू कितना सुंदर होगा।’ पिच्छि जिसके हाथ में होती है वह मुनी मुनी लगता है। पिच्छि मुनियों की पहचान होती है। पिच्छी संयम का उपकरण है।
ज्ञातव्य है कि मुनिराज जब भी बैठते उठते हैं, उस स्थान को पिच्छी से जीव रहित कर लेत हैं। मयूरपंख की पिच्छी के इतने मुलायम रेसे होते हैं कि सूक्ष्म जीवों को भी अलग करने पर उन्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचता। शरीर पर, शास्त्र पर, बैठने के स्थान पर, यहां तक कि सोते समय करवट बदलने से पहले शयनस्थान पर भी पिच्छी से सूक्ष्म जीवों को हटा देते हैं। स्थान पर पिच्छी चला देने से जो जीव हमें दिखाई नहीं देते वे भी हट जाते हैं और अज्ञात जीव-हिंसा से भी मुनिराज बच जाते हैं। पिच्छी के बिना मुनिराज तीन हाथ से अधिक नहीं चलते। नमोस्तु-प्रतिनमोस्तु करने के समय भी मुनिराज पिच्छी से एक विशेष स्थिति बनाकर नमन करते हैं। पिच्छी को वर्ष भर उपयोग करते करते इसके पंखाग्र कुछ सख्त हो जाते हैं जिससे जीवों को हटाते समय उन्हें कष्ट पहुंचने की आशंका होती है, इस कारण मुनिराज पिच्छी परिवर्तन करते हैं।