🌹जो पहले कभी नहीं किया वही करना होगा🌹मंदिर का पुजारी देखता था कि एक सज्जन रोज करीब घंटे भर तक मौन धारण कर मंदिर की परिक्रमा करते थे। उनके आँखें सिर्फ परिक्रमा मार्ग पर ही स्थिर रहती थीं। एक दिन पुजारी ने पूछ ही लिया तो उन्होने बताया कि उनके घुटनों में समस्या है और मधुमेह भी है। डॉक्टर ने रोज एक घंटा टहलने के लिए कहा है। पहले वह पार्क जाते थे, जहां साथी मिलते थे। सामाजिक-राजनीतिक सभी प्रसंगों पर चर्चा के साथ निंदा-रस का पान भी होता रहता था। अचानक समय की उपयोगिता, उपलब्धि की गुणवत्ता का विचार उनके मन में आया कि सैर ही तो करनी है तो पार्क में ही क्यों? क्यों न मंदिर जाकर परिक्रमा की जाए। अब यहां सिर्फ सैर ही होती है, इधर-उधर की बातें और निंदा नहीं। प्रभु के सामीप्य से मन भी प्रसन्न रहता है, विचार अलग शुद्ध बने रहते हैं।
सुबह से शाम तक हम अपने कार्यों में चाहे फल और साग-सब्जी खरीदनी हो, कुछ बेचना हो, कहीं जाना हो, किसी को निमंत्रित करना हो, क्वॉलिटी को प्राथमिकता देते हैं। पर शायद हम अपनी वृत्ति और प्रवृत्ति को पसंद करने में गुणवत्ता का आग्रह नहीं रखते। जबकि हम जानते हैं कि तुच्छ, निरर्थक अथवा हानिकारक वृत्ति और प्रवृत्ति से हमें नुकसान होगा। हम जैसा आकार जीवन को देना चाहते हैं, वैसा ही मिलेगा। क्योंकि हम स्वयं अपने शिल्पी हैं और पत्थर भी हम ही हैं। जीवन का आकार हमारे अंदर की सोच के ही अनुरूप होगा। प्रतियोगिता के हर प्रत्याशी की यह कामना होती है कि वह प्रथम स्थान प्राप्त करे। लेकिन चाहने भर से कुछ नहीं होता, इसके लिए मन हमेशा अपने लक्ष्य पर केंद्रित करना है। दूसरों के बारे में नहीं सोचना और मन में यह दृढ़ विश्वास कि वह जरूर जीतेगा एवं लक्ष्य को पाने की तीव्र लगन। इन्हीं गुणों को अपना कर हम अपने आध्यात्मिक लक्ष्य को हासिल कर सकते हैं। हमें भी मन में विकार उत्पन्न करने वाली प्रवृत्तियों से ध्यान हटा कर दृढ़ आत्मविश्वास के साथ अपने लक्ष्य की ओर उसी राह पर ही चलना जिस पर चलकर हमारे प्रभु पूज्यनीय बने। हमें ध्यान रखना होगा कि जब कभी फुर्सत के लमहों में मन में जो विचार करते हैं क्या उनकी गुणवत्ता सदैव उच्च ही रहती है। अथवा जब हमारे स्वार्थ की पूर्ति नहीं होती तब हमारे मुख से मधुर शब्द निकलते हैं या कटु? जब शरीर पीड़ा का शिकार होता है क्या तब भी हमारी प्रवृत्ति प्रशंसा की ही होती है? जैसे साज-सज्जा के अच्छे सामान से हमारा घर सजा-धजा और मनोहारी दिखता है उसी तरह हमारा मन भी सात्विक विचारों से ही महकता है। यह हमारे मन की कमजोरी है कि हम बाहरी तौर पर अपने को दूसरों के समक्ष सज्जन सिद्ध करने में बहुत रुचि लेते हैं। लेकिन अपनी दृष्टि में अच्छा सिद्ध होने में हमारा ध्यान नहीं जाता। हमें सदैव ही ध्यान रखना है कि आज हम जो हैं, उसका बलिदान किए बिना हम जो बन सकते हैं, वह नहीं बन सकेंगे। हम महान बन सकते हैं, लेकिन अपनी दुर्बलताओं का त्याग किए बिना नहीं। हमें पहले जो कभी भी हासिल नहीं हुआ, वह पाने के लिए हमने जो पहले कभी नहीं किया वही करना होगा।
हम सभी को पता है कि हम सब में प्रभु विराजमान है, हम सभी उसका अंश हैं। लेकिन जब तक हम दोषयुक्त आत्मा बने रहेंगे तब तक दोषमुक्त परमात्मा कैसे बन सकते हैं? परमात्मा बनने के लिए हमें अपनी अशोभनीय प्रवृत्तियों का बलिदान करना ही होगा। सिर्फ दिखावे के लिए अच्छे ना बने क्योंकि परमात्मा हमें बाहर से नहीं भीतर से भी जानते हैं।👉जज (से.नि.) डॉ. निर्मल जैन