‘एक’ के सुख में ‘अनेक’ के सुख एकाकार हो जाएं👉डा.निर्मल जैन”जज साहब”

‘एक’ के सुख में ‘अनेक’ के सुख एकाकार हो जाएं –सुख शब्द सुनते ही मन एक मखमली आनंद से भर उठता है। इस जगत् में सभी सुख चाहते हैं। हममें से हर एक सुख का अभिलाषी है। मनुष्य स्वभावत: है ही सुख-धर्मी। लेकिन सुख क्या है? इसकी सही समझ ना होने के कारण वो अपनी प्रतिष्ठा और वैभव में सुख कोतलाश करता है। जीवन भर इस सुख-सुविधा के समस्त संसाधन जुटाने में ही भटकता रहता है।
सुख एक मानसिक स्थिति है, एक अनुभूति है जो स्वयं अंदर से महसूस होती है। इसे बाहर ढूंढने से यह कभी नहीं मिलेगा। किसको सुख किसमें कितना मिलेगा यह व्यक्ति के स्वभाव पर निर्भर करता है। सुख की सही व्याख्या कोई नहीं कर सका है, केवल सुख-भोगी ही समझ सकता है कि उसके सुख का पैमाना क्या है।
सुख अनुभव करने के सभी के अपने अपने मापदंड हैं। कोई हंस कर अपनी विशेषता प्रस्तुत करता है, किसी की उत्तमता उसकी लेखनी में है, तो कोई संगीत से प्रसिद्धि पाता है। कुछ लोग कर त्याग करने में सुख अनुभव करते हैं तो कुछ पाकर अपना महात्मय जाहिर करना चाहते हैं। वास्तविकता तो यह है कि सुखाभास पदार्थ, सम्बन्ध अथवा वस्तु–स्थिति आधारित न होकर भाव आधारित है। मृत्यु दंड मिले हुए व्यक्ति को स्वादिष्ट भोजन भी बेस्वाद, नीरस लगेगा और भूखे व्यक्ति को साधारण, सूखा हुआ भोजन छप्पन भोग का स्वाद देता है।
सुख का सबसे बड़ा स्रोत औरों को अपने हृदय में स्थान देना है। जब हम पूरे मन से दूसरों की भलाई और सुख की परवाह करते हैं, हमारा हृदय स्नेह से भर जाता है, मुक्त रूप से औरों से जुड़ता है और हम स्वयं भी संतुष्टि का अनुभव करते हैं। हम शारीरिक रूप से भी बेहतर अनुभव करते हैं। -बुद्ध
अपनी सभी आवश्यकताओं और इच्छाओं को पूरा कर लेने के बाद भी पूर्ण सुखाभास नहीं होता। अपितु कभी-कभी तो सब कुछ उपलब्ध होने पर भी हम अकेलेपन और अवसाद की स्थिति तक में पहुँचने लगते हैं। इस दशा में सुख क्या है?
इस का सर्वकालिक उत्तर यही है कि सुख हर किसी की अपनी-अपनी मन की संतुष्टि में है। पैसे वाले के पास सब कुछ होने पर भी यदि वह और पैसा चाहता है तो इसी आकुलता में सुखी नहीं है। इसके विपरीत निर्धन दो समय की रोटी खाकर संतोष की नींद लेता है तो सुखी है। मोह-युक्त धनी, कौड़ी-कौड़ी के लिए छटपटाते देखे जाते हैं, वैराग्य-युक्त व्यक्ति बिपन्नता में भी सुखी रहता है।
सांसारिक सुख क्षितिज की भांति भ्रांत हैं, क्षणिक हैं और अंततः दुःख-रूप हैं। सही बात तो यह है कि सुख-दुख मात्र एक विचार हैं। हमारा जैसा भावना का स्तर होगा उसी के रूप में सुख-दुख की अनुभूति होगी।अगर हमारे अंतर में उदार, दिव्य, सद्भावना का समुद्र उमड़ता रहता है तो हम हर समय प्रसन्न सुखी और आनंद रहते हैं। इसके विपरीत संकीर्ण-मना हीन भावना वाले राग-द्वेष से प्रेरित स्वभावी व्यक्तियों को यह संसार दुखों का सागर मालूम पड़ता है।
अध्यात्म की दृष्टि से देखें तो संसार में न सुख है न दुःख। दुख एक दर्पण होता है जो सब कुछ दिखाता है,सुख एक दर्शक है जो बस देखता है| एक का दुःख दूसरे का सुख हो सकता है। एक ही घटना किसी के लिए दुखदायक बनती है तो वही घटना किसी अन्य को भावी सुख की आहट देती है।
वास्तविक और सच्चा सुख है -आत्मानंद, जो आलोकिक भी है और शाश्वत भी। सच्चा सुख आकर कभी वापिस नहीं जाता। महावीर तो बहुत पहले ही कह गए हैं –सुख को प्राप्त करने का मार्ग है, प्राप्त में संतोष रख कर त्याग की ओर बढ़ना। वस्तुतः सुख की पूर्णता ही आनंद में है और आनंद तभी अपनी समग्रता में उपजता है जब ‘एक’ के सुख में ‘अनेक’के सुख एकाकार हो जाएं। 👉जज (से.नि.) डॉ. निर्मल जैन