एक प्रयोग करें किसी दिन वीतरागी के दर्शन करते हमय न उनकी स्तुति करें न उनको उनके गुणों का स्मरण कराएं अपितु उनके स्वरूप पर ध्यान दें कि वे क्यों नासा-दृष्टि लिए शांत भाव से हाथ पर हाथ स्थिर किए हुए मौन अवस्था में स्थित रहते हैं? शोरगुल और भीड़ से परे, सारी शारीरिक प्रक्रियाओं से दूर एक क्षण के लिए अपने मानस-पटल पर वीतरागी मुद्रा को स्थापित कर उनके रोम-रोम, भाव-भंगिमा को निहारें। उनसे कुछ पाने के भाव से दूर उनके गुणों को आत्मसात कर सोचें कि -क्या उनकी इस मुद्रा के पीछे हमारे लिए कोई संदेश या संकेत है? भाव शुद्ध एवं निर्मल होते ही हमें लगेगा कि उनका मौन हमसे कह रहा है –तुम मेरा कितना ही मेरे दर्शन के नाम पर गुणगान करो, प्रशंसा करो, नृत्य कर, गीत गा, नाना प्रकार के वाद्य-यंत्र सजाकर मुझे रिझाओ, मेरे लिए इन सब अभिनय का महत्व नहीं है। मैं संपूर्ण सांसारिक अनुशंसा और प्रशंसा से ऊपर उठ चुका हूँ। तुम्हारी इन शारीरिक क्रियाओं पर न मेरी नजरें उठेंगी न मैं तुम्हारी कुछ सुनुंगा। मेरा खाली हथेली हाथ पर हाथ धरे वाली स्थिर मुद्रा देख कर भी नहीं जान पाये कि मेरे हाथों में ऐसा कुछ भी नहीं दिख रहा है जो मैं तुम्हें दे सकूँ।
समर्थ होकर भी मेरे सामने भीख मत मांगो –“मुझे आप सम कर ले ओ स्वामी”। अपितु संकल्प लो कि “मैं भी आपके जीवन-दर्शन से प्रेरित हो, पुरुषार्थ कर आप सम बन जाऊं स्वामी”। मेरी नासा दृष्टि के पीछे अंतर्निहित भाव समझो। नासा अर्थात कोई आशा शेष नहीं। सांसारिक दुखों, जन्म-मरण की यात्रा से मुक्ति पाने के लिए अपनी दृष्टि सिर्फ अपने ऊपर रखो, स्वदोष दर्शन करो, परदोष, पर उपलब्धियों की खोज में इधर-उधर कहीं मत भटको। जितना है उतने से संतुष्ट रहो। लेकिन बेहतर के लिए क्रियाशील भी रहो। मात्र मेरे दर्शन-पूजन से तुम्हें ऊर्जा तो मिल सकती है। लेकिन जो मांगते हो, चाहते हो वैसा न होने वाला है और मिलने वाला तो कतई भी नहीं। मुझे पाना है तो मेरे अनुगामी बन कर मेरे जैसा आचरण करो, पुरुषार्थ करो। कल्पित एवं सर्जित शक्तियों के पूजन से नहीं। सौ जन्म तक संसार के क्रियाकलापों में फंसे रहो मुक्ति नहीं। मशीनवत् कमाते रहो, दान देते रहो, अपने भावों को विसरा किसी दूसरे के संकेतों पर पूजा करते रहो, तीर्थ स्थानों पर जाते रहो, व्रतों का पालन करते रहो तो इससे भी मुक्ति नहीं मिलनी। अंतरात्मा के सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन एवं सम्यक चरित्र से ही आत्म-साक्षात्कार संभव है, मुक्ति संभव है।
कितने ही काल से धर्मात्मा होने का आवरण ओढ़े हुए मेरे सामने आते रहे हो फिर भी मेरी दृष्टि में तुम धार्मिक किसी भी ओर से नहीं लगते, न तुम्हारे मान-कषाय में कमी दिखाई देती है। सच तो यह है कि एक और अहं की वृद्धि ही हुई है, वो है धर्म करने की। यह नकारात्मक प्रगति इसलिए कि अनंत काल से मेरी प्रतिमा के दर्शन का आडंबर रचते हुए तुमने प्रतिमा के ही दर्शन किए। तुम्हें प्रतिमा में समाविष्ट न मैं दिखा न मेरा जीवन आचरण। धार्मिक होने के लिए किसी खास पद्धति से दर्शन, पूजा, पाठ, आकुल तन-मन से घंटों किसी अनुष्ठान विशेष का किया जाना ज़रूरी नही है। अगर कुछ जरूरी है तो वह है आचरण की पवित्रता, सहज होना, जीव, दया और करुणा का भाव लिए अपने स्वभाव और कर्म के प्रति ईमानदार होना। जहां भी स्थित हो, अपने कर्तव्यों और दायित्वों को पूरा करना ही सबसे बड़ी पूजा है।
जज (से.नि.)डॉ.निर्मल जैन