मुनि श्री चिन्मय सागर महाराज जी ने त्याग, तप, तपस्या के बल पर “यम सल्लेखना” पूर्वक मृत्यु को महोत्सव के रूप में मनाकर उत्कृष्ट “समाधिमरण” करके अपने जीवन को सार्थक कर लिया। जंगल में “जिन प्रभावना” से मंगल करने वाले मुनिश्री का, “जंगल वाले बाबा” के नाम से ही हर कोई गुणगान करता है। लाखों की संख्या में जैन एवं जैनेतर सभी लोग मुनि श्री के परम भक्त बने । मुनि श्री ने जहां जैन श्रावक-श्राविकाओं को जैन जीवन शैलीे को अडिग होकर पालन करने का संदेश दिया वहीं अजैन लोगों को मद्य,माँस एवं सभी व्यसनों से दूर रहकर शाकाहारी एवं सात्विक जीवन जीने का मार्ग दिखाया। धर्म जाति से परे होकर मुनि श्री ने लाखों लोगों के लिए सत्य एवं अहिंसा का मार्ग प्रशस्त किया । उनका जहाँ भी चातुर्मास होता, वे शहर से दूर जंगलों में अपनी मुनिचर्या का पालन करते हुए, तपस्या में लीन रहते थे । उन्हें कठिन तपस्या करते हुए देखकर, सिर्फ मनुष्य ही नहीं बल्कि पशु-पक्षी भी उनके चरणों में नतमस्तक हो जाते थे। उनके प्रवचनों के द्वारा जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव से लेकर अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर के उपदेशों एवं णमोकार महामंत्र की गूँज से सारा जंगल , जिनमय हो जाता था। उनके इन प्रवचनों को सुनकर भक्तों के जीवन में आध्यात्मिक शक्ति का संचार होता था एवं इसका सकारात्मक प्रभाव जंगल में रहने वाले जीव-जन्तु पर भी पड़ता था।
*”जंगल में मंगल करना , जंगल वाले बाबा का काम था,*
*उनके रोम-रोम में छाया,’अहिंसा’ का सिद्धांत था।”*
“जीयो और जीने दो” को उन्होंने जीवन में उतार लिया था । जिस तरह भगवान् महावीर “अहिंसा परमो धर्म:” एवं “जीयो और जीने दो”के सिद्धांतों की प्रभावना एवं साधना के लिए साधक बनकर जंगल गए थे। उसी तरह मुनि श्री भी भगवान् महावीर का अनुकरण- अनुसरण करते हुए जंगल में साधना करते थे । उन्होंने जंगल के आस-पास रहने वाले लोगों को भी , सात्विक जीवन जीने की कला सिखाई और वे आज भी मुनिश्री के दिखाए हुए मार्ग पर चलकर अपने जीवन का कल्याण कर रहे हैं। आदिवासी इलाकों, बीहड़ जंगलों में विहार करके उन्होंने जन-जन को अहिंसा के मार्ग से जोड़ते हुए शाकाहारी बनने की प्रेरणा दी और भगवान महावीर के सिद्धांतों से उनके जीवन का कल्याण किया ।वे जहाँ भी गए , वहाँ हर धर्म और जाति के लोगों ने उनसे प्रेरणा ली और उनके चरणों में नमन किया ।
मुनि श्री दृढ़ इच्छा शक्ति एवं संकल्पशक्ति के धारी थे।संसार में आपके लिए कुछ भी असाध्य एवं असंभव नहीं था।आपने अपने जीवन के कम समय में ही अनेक ऐतिहासिक कार्य किए।कठिन से कठिन कार्य के लिए भी आपकी संकल्प शक्ति इतनी मज़बूत होती थी कि वह कठिन कार्य सहज एवं सरल हो जाता था और आपका मनोबल मेरु के सामान ऊँचा हो जाता था ।
मुनिश्री चिन्मय सागर जी मुनिराज शरीर के स्वास्थ्य ठीक न होने पर भी आगम के अनुसार मुनि धर्म का पालन करते हुए, हजारों किलोमीटर पैदल विहार करके जिन धर्म की प्रभावना करते थे।
मुनिश्री सदैव साध्य से साधना की भावना रखकर , साधक बनकर भीषण गर्मी, कड़कड़ाती ठण्ड , मूसलाधार वर्षा आदि विभिन्न प्राकृतिक विपरीत परिस्थितियों के बीच भी जंगल में रहकर कठिन साधना करते थे और बाधा, उपसर्ग ,परिषह को सहन कर करते हुए , समता भाव रखकर अपनी तपस्या में लीन रहते थे ।
उनकी तपस्या देख कर, हम सभी भक्तों ने ये जाना कि साधना के लिए शारीरिक शक्ति की ही नहीं बल्कि अपनी आंतरिक आत्म शक्ति की भी आवश्यकता होती है।
मुझे भोपाल एवं श्रवणबेलगोला में उनके दर्शन करने का सौभाग्य मिला था उनके दर्शन करके मेरा जीवन धन्य हुआ किन्तु इस बात का हमेशा अफसोस रहेगा कि अंतिम समय में साक्षात् गुरुवर के दर्शनों का सौभाग्य नहीं मिल पाया। मुनि श्री ने तप, त्याग और संयम की उत्कृष्ट साधना के बल पर “यम संल्लेखना” लेकर शांतभाव से देह को त्याग कर समाधि की चरम अवस्था को प्राप्त किया ।
दिगम्बर श्रमण संस्कृति के नक्षत्र मुनि श्री चिन्मय सागर जी मुनिराज के उपदेशों को हम सभी जीवन में अपनाएं और उनके जीवन से प्रेरणा लेकर ,अपने भी अंतिम समय में “संल्लेखनापूर्वक” “मृत्यु को महोत्सव की तरह” मनाते हुए समाधिमरण के भाव को धारण करके आत्मकल्याण करें यही भावना है।
डॉ. इन्दुु जैन “राष्ट्र गौरव”