आपदा चाहें प्राकृतिक हो या मानवीय भूल से हो, हमें अस्त-व्यस्त और दुखी तो बहुत करती है लेकिन उसके पीछे जो कारण होते है उनसे हमें सचेत भी कर जाती है। कोरोना वायरस की वजह से पूरा विश्व मुश्किल हालात का सामना कर रहा है, अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित है। कितने लोगों के रोज़गार छिन गए हैं। कितने निर्दोष काल-कवलित हो रहे हैं। आम जन-धन-स्वास्थ्य की अपूर्णीय क्षति हुई है, लेकिन यह हमारी चेतना को कुछ जागृत भी कर रहा है।
हम जान गए हैं कि पैसा ही सब कुछ नहीं होता है। इसीलिए सभी ने जीने के लिए पैसे की कामना छोड़ एक-दूसरे की मदद के लिए प्रतिबद्धता दिखाई है। कुछ ऐसा भी आया है जिसे सकारात्मक बदलाव के तौर पर देखा जा सकता है। कोरोना से उपजे हालात ने हमारे जीवन-यापन के परंपरागत पुरातन मूल्यों की पुष्टि कर दी है। उस आध्यात्मिक-जीवन-पद्धति को हमारी भौतिक आवश्यकता बना दिया है जिसे सामान्य दिनों में हम अपनाने से बचते रहे हैं।
सब कुछ बंद है इसलिए प्रदूषण के स्तर में कमी आना स्वाभाविक है। जो इस सत्य को समझा रहा है कि हमारे कारखाने केवल आवश्यक अवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही चलें, अनिवार्यता होने पर ही वाहनों का आवागमन हो, उपभोग में संयम से काम लें तो आगे भी प्रकृति से मिले इन उपहारों को इनकी मूल स्थिति में सुरक्षित रखा जा सकता है।
कोरोना मारक है मार-मार कर हमें इतनी सीख भी दे रहा है कि -हम जितना अर्जन करें चाहे वह धन हो, धर्म हो, शक्ति हो, ऊर्जा हो उसका कल के लिए, भविष्य के लिए, कोरोना जैसी विपत्ति के समय के लिए जरूर कुछ ना कुछ बचा कर रखें। जिससे अभाव का अनुभव ना हो।
विनाशकरी कोरोना तूने हमें टॉर्चर तो बहुत किया लेकिन हमने तुझे टीचर मान कर बहुत सीखा भी है। घर में बंद ज़रूर हैं। लेकिन बहुत से व्यर्थ की गतविधियों से आज़ाद भी हैं। सब अपने में निर्भर दिखने लगे है। धन्यवाद हमारी याद्दाश्त तेज करने के लिए कि जिन छोटे-छोटे दुकानदारों की तरफ हम देखते भी नहीं थे, पेटी भरने के लिए कल कई मॉल भी कम लगते थे आज इस संकट काल में वे मॉल नहीं पेट भरने के लिए यह दुकानदार ही हमारे भंडारे भर रहे हैं। बहुत बड़ा शुक्रिया यह याद दिलाने के लिए जरूरतें तो थोड़ी सी होती हैं लेकिन ख्वाहिशों का दायरा बहुत बड़ा होता है।
काल के प्रभाव से हम एकाकी होते जा रहे थे। बाहर इतना देखते रहे कि भीतर देखना ही भूल गए। घर की खुशियों को छोड़कर रोज बाहर भागते थे। तेरे कारण लॉकडाउन से ये जाना कि खुशियां तो घर के अंदर अपनों के बीच ही थीं। रोज घूमते रहे अमेरिका, स्विट्ज़रलैंड, रोम में। लेकिन इन दिनों परिवार-जन के संग खेला लूडो और कैरम, लगायर ठहाके तो पाया कि सबसे ज्यादा खुशियां तो हैं होम में। बच्चे भी समझ गए हैं कि स्वादिष्ट लेकिन स्वास्थ्य के लिए घातक ‘जंकफूड’ के बिना भी आसानी से जी सकते हैं। वे भी स्वावलंबी बन रहे हैं।
जो दशकों में न जान पाये वो हम महीनों में सीख गए। आपसी सहयोग ही एक ऐसा सेतु है जो सबको आपस में जोड़े रखता है। जीवन केवल सांसों की रथयात्रा नहीं है जो उम्र के पड़ाव-दर-पड़ाव पार करते हुए गुजर जाए। जीवन लेने के लिए ही नहीं अपितु देने के लिए भी है। हमें भी अहसास हो गया कि सादा, स्वास्थ्य-वर्धक जीवन जीना बहुत सरल और सस्ता है। खर्चीला तो प्रदर्शन है।
विश्व में कोई भी देश अपने आप को सबसे शक्तिशाली या संपन्न भले ही कह ले, लेकिन इस विपत्ति के सामने वह असहाय नजर आ रहा है। बड़ी-बड़ी मिसाइलों को रखना किन्ही भी मसलों का हल नहीं। रोग का हल हॉस्पिटल में ही है। आज भी अगर ना समझे तो अपना भी कल नहीं है। वे देश जो अपने आप को बड़े तीसमार खाँ बनते थे एक नन्हे से अनदेखे वायरस से भी बौने निकले। कोरोना तुझसे हमने सीखा बहुत कुछ है लेकिन तेरे कारण जन-धन का जो विनाश हुआ है उसके लिए मानवता तुझे कभी माफ नहीं करेगी। 👉पारस पुँज अंक मई में जज साहब की सार्थक कलम का साथ 👇👇👇