पंथवाद की ओढ़नी चादर से बाहर झाँके जैन समाज



आगे आचार्य भगवन कहते हैं कि👉यह पंथवाद पतन का मुख्य कारण है, जिसे अधिकाँश लोग द्वेषभाव के माध्यम से अपने अंदर पनपाते हैं और अदृश्यता से उसका पोषण भी करते हैं लेकिन बाहर से धर्मात्मा होने का ढ़िंढ़ोरा पीटते हैं| जरा विचार कीजिए👉कि द्वेषभाव से परिपूर्ण यह पंथवाद का जहर जीव के उत्थान में कैसे सहायक सिद्ध हो सकता है? कदापि नहीं!
👉विश्व व्यवस्था और सामाजिक संख्या का आंकलन करते हुए अब वक़्त आ चुका है कि जैन समाज को पंथवाद की ओढ़ी हुई चादर से बाहर झाँकना चाहिए|आज के दौर में समाज को पंथवाद के कट्टरपंथियों को पीछे छोड़कर आगे बढ़ना चाहिए क्योंकि धार्मिक क्षेत्र हो या सामाजिक क्षेत्र, व्यक्ति का रंचमात्र का “द्वेषभाव” दुर्गति का पात्र ही बनता है|


👉आज देश की समाज के समक्ष मैं एक विचारणीय विषय रखता हूँ कि धार्मिक क्षेत्र में जब हम “ऊँ” जैसे बीजाक्षर मंत्रों एवं णमोकार जैसे महामंत्र, धर्म ध्वजा का गुणगान करने में मन-मष्तिक से एक साथ हैं और व्यक्तिगत रूप से नाम के पीछे अपना सरनेम “जैन” लगने पर हम सब एक मत है तो फिर परम्पराओं पर “मनभेद” भी नहीं होना चाहिए?
👉ध्यान रखना हमें फिरंगियों से आजाद हुए तो 70 साल हो गए लेकिन समाज में फैले कुछ दुरंगियों की गिरफ्त में हम आज भी हैं जिनसे हमें बहार निकलना होगा और दुनिया को एकजुटता का परिचय देना होगा| इसी श्रँखला में👉 गायक रविन्द्र जैन की पंक्तियाँ गुनगुनाते हुए आचार्य भगवन बोले 👉”ना कोई दिगम्बर ना कोई श्वेतांबर ना कोई स्थानकवासी हम सब जैनी हमारा धर्म जैन हम सब एक धर्म के अनुयायी”
👉आज का मानव कितना निजी स्वार्थ में डूबता जा रहा है कि उसने धार्मिक परम्पराओं को, तो पंथवाद के खूटे से बाँध रखा है लेकिन पुत्र-पुत्री की शादी जैसे प्रकरण पर पंथवाद को स्वतन्त्र कर दिया है आज निजी स्वार्थ के लिए मंदिर परम्परा की पुत्री स्थानक परम्परा के जोड़े में बाँध रहे हैं! लेकिन पंथवाद के नाम पर अपनी नेतागिरी चमकाना नहीं छोड़ते हैं|
👉देशहित-समाजहित और जनहित में संदेश देते हुए आचार्य भगवन ने कहा कि👉किसी को प्रासुक जल से भगवान का अभिषेक करना अच्छा लगता है, किसी को पंचामृत से अच्छा लगता है तो किसी को श्रंगार करने के उपराँत भगवान अच्छे लगते हैं, किसी को भगवान आँखें निहार कर अच्छे लगते हैं तो किसी को आँखें मूँदकर भगवान अच्छे लगते हैं, तो लगने दें आखिरकार भगवान सब को लगते तो अच्छे ही हैं बुरे तो नहीं लगते, बुरे तो हम लोग लगते हैं जब एक ही धर्म के अनुयायी होते हुए मतभेद के चलते मनभेद पर उतारू हो जाते हैं! ज्ञानियों !! यह सब अपनी-अपनी अस्था और मानसिकता का विषय है! यही तो भरत जी के भारत की स्वच्छ तस्वीर है लेकिन हमें किसी की आस्था पर अपनी मानसिकता नहीं थोपनी चाहिए क्योंकि दुनिया में थोपनापन ही थोथापन और छोटापन दर्शाता है|

