जीते कोई भी, हार धर्म की ही होनी है-डा.निर्मल जैन(से.नि.जज)
जीते कोई भी, हार धर्म की ही होनी है राजनीतिक क्षेत्र में देश के कुछ प्रदेशों में चुनाव की गहमा-गहमी है। हमारे धर्म-क्षेत्र में व्हाट्सएप,सोशल मीडिया पर वाक-युद्ध की गर्मा-गर्मी चल रही है। हम सब कुछ बदलने पर तुले हैं। बड़ी पुरानी कहावत है -जैसा खावे अन्न वैसा होगा मन और जैसा पिए पानी वैसी हो बानी। समाज के किसी भी अंग से हों अधिकांशत: वे सभी जो चर्चा में बने रहते हैं शुद्ध और मर्यादा का अन्न, जल ग्रहण करते। तब विचार और वाणी क्यों मर्यादा लांघती दिखाई दे जाती?जीवन को देखने के सबके अपने-अपने ढंग होते हैं। हम किसी दूसरे के ढंग को हू-ब-हू नहीं अपना सकते। न हम महावीर बन सकते हैं। न ही राम या कृष्ण। हां, उनके जीवन से कोई अंश ग्रहण कर सकते हैं। यह भी तभी संभव है जबकि हम भी उन्हीं की तरह देख पाएं। उन्हीं अर्थो को समझ पाएं, जिन अर्थो में वे जी गए,कह गए, देख गए।
बड़ी सामान्य सी बात है परिवार में कहीं किसी सदस्य से कोई भूल-चूक हो जाती है तो पनघट पर जाकर चीखा नहीं जाता। लेकिन हमने तो एक प्रसंग को(मैं यह नहीं कहूंगा कि वह उचित या अनुचित था)लेकर अंतर्राष्ट्रीय विषय बना दिया। परिणाम यह हुआ कि जो कुछ भी दबा-ढका था सब उजागर हो गया। हम भूल गए कि अगर बाई तरफ का पायचा उठायेंगे तो भी हम नंगे होंगे और दाईं तरफ का उठाएंगे तब भी बेपर्दा हम ही होंगे। युद्ध अभी जारी है। मालूम नहीं कौन विजयश्री का वरण करेगा? लेकिन निश्चित रूप से पहले दिन से ही धर्म की हार होनी शुरू हो गई और धर्म ही हारेगा। जीते कोई भी पक्ष।
सैकड़ों, हजारों श्रोता की भीड़ समाज का अकूत धन खर्च। लेकिन आचरण कि बात छोड़िए कितनों की समझ आया इसका भी कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं। रोज सुनते हैं जैनधर्म के तीन आधार हैं। अहिंसा, अपरिग्रह,अनेकांत। लेकिन सोशल मीडिया पर कोई पल नहीं जाता जब भाव-हिंसा ना करते हों। हर संदेश का सूक्ष्म मनन करो तो परिग्रह का यह साम्राज्य-विस्तार-वादी अंतर्निहित भाव दिखाई दे ही जाता है कि हर मूल्य पर मैं जिस संस्था, जिस पथ या जिस पंथ से जुड़ा हूं उसका अधिकतम विस्तार करना है। यह भी तो परिग्रह-भाव ही है। किसी ने अगर कहीं कोई ऐसी बात कह दी जो कुछ के मतानुसार नहीं कहनी थी, तब जिनदर्शन का अनेकांत, स्याद्वाद, सहिष्णुता सूत्र कहां चला जाता है? एकदम उन्मादी से बनकर न तू मेरा न मैं तेरा।
चारों घड़ी, आठो याम, चोबीस घंटे, हर दिन एक शीत युद्ध में घिरे रहते हैं। अपने विवादों को जग-जाहिर करते हैं। परिणामत: अपने-अपने झंडों को ऊंचा करने की दौड़ में समाज का झंडा नीचा होता जा रहा है।गली-गली नेता होने के बाद भी रोते और झींकते हैं कि हमारा कोई सांसद नहीं है, हमारा कोई विधायक नहीं है। हमारे तीर्थ-क्षेत्रों की कोई परवाह नहीं करता, सब पर अन्य लोगों का कब्जा होता जा रहा है। हम धर्म के इतिहास को लेकर तो शब्द-अर्थ-विच्छेदन करते रहते हैं। लेकिन समान्य इतिहास से कुछ नहीं सीखते कि -बिखरे हुओं को सदा ही व्यवस्था ने ठुकराया है।जब तक हम संगठित नहीं होंगे तब तक बाहरी तत्व हमें नुकसान पहुंचाते ही रहेंगे।
एक बहुत बड़े चैनल द्वारा बताया गया है कि हमारे 55 त्यागी-वृति करोना से संक्रमित हो गए और अत्यंत दुखद है कि उनमें से पांच का देवलोक गमन भी हो गया। उसकी वजह सिर्फ और सिर्फ हम लोगों का धार्मिक क्रियाओं के प्रदर्शन का जुनून और असंयमित हो कर लापरवाही वरतना। इस करोना ने कितनों को बेरोजगार कर दिया, कितनों को भर-पेट खाना नहीं मिला। महावीर की इस जीव-दया-करुणा से हमें कोई सरोकार नहीं। बस मंदिर नहीं खुले यह हमारी सबसे बड़ी पीड़ा बनी रही। यह अलग बात है कि कुछ दिनों मंदिर जी न खुलने पर न कोई मानसिक रूप से विक्षिप्त हुआ और न ही कोई शारीरिक तौर पर कमजोर। इन दिनों बैठे-ठाले अमेज़ोन कि तर्ज पर ऑनलाइन धार्मिक-प्रक्रियाओं का भी आविष्कार हुआ। वेबिनार की फसल में तो आशातीत बढ़ोतरी हुई। आवागमन समान्य होते ही उन्हे भी ढूंढते रह जाएंगे।
एक और तीखा सच कि जब मंदिर खुलते थे,मंदिर जाते थे तब सोचें कि क्या मंदिर जी में होने के बाद भी हमारे मन में मंदिर जी ही विराजमान रहता था? उस मंदिर जी में विराजमान वीतराग मुद्रा के गुण ही विचरण करते थे? इसका उत्तर हम किसी से कहें भले ही नहीं लेकिन अपनी वास्तविकता जानते हम सब हैं। सारे विवादों के परे, अब समय की मांग है कि -चर्चा बंद,चर्या शुरू। चरण-पूजन से अधिक महत्वपूर्ण आचरण-अनुसरण। घर के बाहर नेम-प्लेट एक। अंदर अपने-अपने कक्ष में सबका प्रभुत्व। जज (से.नि.) 👉डॉ. निर्मल जैन